18 नवंबर 2008

खेत की खातिर

कभी सोने की चिडियां कहा जाने वाला हमारा देश सोने का एरोप्लेन बन चुका है। विश्व की महाशक्ति, एशिया का स्वर्ग और चाँद पर पहुँच। हमने सबकुछ तो हासिल कर लिया पर एक चीज़ भूल गए.....वो है हमारा खेत, हवा, जंगल और पानी। आज हम जो कुछ भी हैं सब धरती की देन है। खाने के लिए अनाज, पिने के लिए पानी, साँस लेने के लिए स्वच्छ हवा और विकास के लिए खनिज। हमने चाँद पर तिरंगा तो फहरा लिया पर बाढ़ से बेहाल गरीबों की समस्या को नही समझ पाये। हम क्रिकेट में सबसे आगे तो हैं पर मुनाफ जैसे खिलाडी क्रिकेट में क्यों नही आते, नही समझ पाये। हम अमीर तो बन गए पर विदर्भ के मरते किसानो की मजबूरी नही समझ पाये। आज एड्स से बचने के तरीके रोचक अंदाज़ में बताये जाते है, पर ये नही बताया जाता कि गन्दा पानी पिने से हर साल लाखों लोगों कि मौत होती है। जितने लोग प्रदूषित हवा, प्रदूषित जल से होने वाली बीमारिओं से मरते हैं शायद ही एड्स से मरते होंगे। मलेरिया, फलेरिया, कालाजार, डेंगू, हार्ट प्रोब्लम, लंग्स की तमाम बीमारी, इन्तेस्ताइन की बीमारी, किडनी इन्फेक्शन, आँख की बीमारी, बहरेपन, गंजापन, स्किन प्रोब्लम आदि ऐसी तमाम बीमारियाँ पर्यावरण प्रदूषण की देन है। पर इस बाजारवाद में पैसा ही सब कुछ करवाता है। एड्स में पैसे की कमाई है इसलिए एड्स आज सबसे बड़ी बीमारी है। देश की अमूमन सारी नदियाँ कचरे से पट चुकी है। सारे पहाड़ नंगे हो चुके हैं। जंगल मैदान में तब्दील हो चुका है और खेत की जगह अपार्टमेन्ट ने ले ली है...पर परवाह किसे है ? जब कोई आपदा आती है तभी हम जागते हैं। तरक्की के मायाजाल ने हमें इस कदर अँधा-बहरा कर दिया है कि सिर्फ़ सुनामी और जलजला ही हमें परेशान कर पाती है। फैक्ट्री के कचरे से जहाँ नदी ज़हर बन चुकी है वहीं प्लास्टिक और रसायनिक कचरे ने खेत की मिट्टी को बंजर बना दिया है। और तो और, जंगल की लकडी अवैध व्यापार का शिकार है। जिसने हमें इतनी ऊंचाई दी है उसी को खोखला कर हम अपनी ही नींव कमजोर कर रहे हैं। जागो मेरे भाई जागो। अपनी मिट्टी की रक्षा करो। हम सब को मिल कर हमारे पर्यावरण को स्वच्छ बनाना होगा, इसे प्रदूषण से बचाना होगा। बेजुबान जानवरों को शिकार होने से बचाना होगा। यही हमसब के हित में है।

15 नवंबर 2008

क्रिकेटिया बुखार

सहवाग अन्दर युवराज बाहर, पोंटिंग बेइज्जत धोनी की शोहरत.....आदि - आदि। जहाँ देखो क्रिकेट की बुखार से लोग तप रहे हैं। ऐसी बीमारी जिसे हर कोई अपनाना चाहता है। टीम जीती तो दारू और हारी तो टीवी की कबारू। खैर हम भी कभी- कभी इस बीमारी के शिकार हो जाया करते हैं। आख़िर हम सब एक सामाजिक प्राणी जो हैं। मुझे लगता है ये एक तरह का वाइरल इन्फेक्शन है जो तुंरत फैलता है। अगर आपको ट्रेन में बैठने की जगह नही मिल रही हो तो शुरू कर दें क्रिकेटिया वाइरल फैलाना, देखिये फ़ौरन आपको सीट मिल जायेगी। कहीं बैठे बोर हो रहे हो तो शुरू हो जाइये... बस सारे लोग आपकी बीमारी में शरीक हो जायेंगे। सिद्धू भी नेतागिरी का उदाहरण क्रिकेटिया किताब पढ़ कर देते हैं। अखबार और टेलीविजन की दूकान इसी बीमारी को फैला कर चल रही है। मिला - जुला कर देखे तो कई लोगों की रोजी-रोटी इसी बीमारी पर टिकी है। क्राइम रिपोर्टर और पोलिटिकल रिपोर्टर तो सुना था पर अब क्रिकेटिया रिपोर्टर भी पैदा ले चुका है। युवाओं का करियर बन चुका है ये बीमारी। अब आप ही सोचिये बीमारी भी किसी का करियर हो सकता है। डॉक्टर भी इस बीमारी से अछूते नही रहे। टीम की हार से संसद भी संकट में घिरा नज़र आता है। संसद में सोने वाले सांसद भी इस बहस में भाग लेकर अपनी उपयोगिता को साबित करते हैं। पत्रकार भाई तो इसे एक नया धर्म बना कर एक और टेंशन देना चाहते है। जितने ज्यादा धर्म उतने ज्यादा टेंशन। वैसे आइडिया बुरा नही है। लोग पूछेंगे आपका धर्म क्या है ? जवाब होगा --बीमारी और आपके भगवान् ? तो उत्तर होगा --बीमार सचिन। तो ऐसी है हमारे देश की जनता की तबियत। वैसे ये आलेख भी बीमारी ग्रस्त ही लगता है, और ध्यान रहे कहीं इसे पढ़ कर आप भी बीमार न पड़ जाए।

हम तो ऐसे हैं ''भइया''

भइया शब्द के एक ही मायने है ''बड़ा भाई'' और बड़ा भाई बाप समान होता है। यू पी बिहार और झारखण्ड के लोग दक्षिण और पश्चिम भारत में भइया शब्द से संबोधित होते हैं। होना भी चाहिए। ये तीनो राज्यों के लोग देश के अगुआ रहे हैं। हर क्षेत्र में यहाँ की आवाम ने अपनी पहचान छोडी है। पाटलिपुत्र जो वर्त्तमान में पटना है देश की प्रथम राजधानी थी। सबसे पहले सम्राट अशोक ने ही विकाश के सही मायने बताये थे। तो मेरे कहने का मतलब है कि पिता समान बड़े भाई की तौहीन करना सुधरे बच्चों का काम नही, असंस्कारी और नालायक बच्चों का काम है। एकल परिवार की हवा है, फिर भी शिक्षित और संस्कारी बच्चे अपने पिता के पाँव को भगवान् राम की खराँव समझते हैं। पर कुछ उदंड बच्चे भी हैं जो अपने बाप को घर से निकाल वृद्धा आश्रम में रहने पर मजबूर करता है। चार बच्चों में अगर एक कुपुत्र निकल जाए तो उसे बच्चा समझ कर माफ़ कर देना चाहिए। आख़िर हम बाप मेरा मतलब है भइया जो ठहरे। कुछ उदंड बच्चे अगर महाराष्ट्र छोड़ने को कहते हैं तो छोड़ दीजिये। बागबां की तरह हमें भी उसे ठुकरा कर देश के भविष्य की और देखना चाहिए। हमें ये याद रखना चाहिए कि इस तरह के मुद्दे को हवा देकर कुछ गुंडे स्वभाव के बच्चे अपनी जेब भरना चाहते हैं। इसलिए मेरे भाई बह्काबे में मत आओ। बड़े भाई की जिम्मेदारी निभाओ। गाली देने और तौहीन करने से कोई बड़ा नही बन जाता। छोटा बाबू, बाबू ही रहता है और भइया बाप ही कहलाता है।

12 नवंबर 2008

द दादा ''देश की दौलत''

विदाई की भावुक नमी में जीत का एक चम्मच शक्कर घुल जाये तो यही होता है। पनीली भावनायें मीठी हो जाती है और आसमां थोड़ा और झुककर पलकों पर बैठा लेने को बेताब। जी हाँ ये भारतीय क्रिकेट के महाराज की विदाई है कोई खेल नहीं। विदाई जीत के उस दादा की जो ऑस्ट्रेलिया को ऑस्ट्रेलिया में पीटकर आता है। अंग्रेजों के भद्र स्टेडियम में अपने जज्बात दबाता नहीं बल्कि साथियो के चौकों और छक्कों और टीम की जीत पर टी शर्ट उतारकर हवा में लहराता है। जिसकी रहनुमाई में १४ खिलाडियो का समूह 'टीम इंडिया' हो जाती है। जो जीते गए मैचों की ऐसी झडी लगाता है की बस गिनते रह जाओ। जो 'टीम ''निकाला मिलने'' पर टूटता नहीं है। लड़ता है। समय का पहिया घूमता है और प्रिन्स ऑफ कोलकाता की टीम में वापसी होती है। भारतीय क्रिकेट का ये फाइटर शतक और दोहरे शतक के साथ सलामी देता है। करीब डेढ़ दशक तक खेल प्रेमियों के दिलोदिमाग पर दादागिरी करने वाले बंगाल टाइगर ने भारतीय क्रिकेट की कमान उस वक़्त संभाली जब हर तरफ अँधेरा था। राह नहीं सूझ रही थी। ये लार्ड ऑफ द विन भारतीय क्रिकेट के सव्यसाची थे । जिन्होंने टीम ही नहीं खेलभावना को पराजय और अवसाद के अंधेरो से बहार निकाल कर बड़े बड़े मैदान में विजय पताका फहरायी। निराशा के बीच आशा की नई किरण तलाशने की सीख सौरव ने ही टीम इंडिया को दी। सौरव गांगुली का आना, उसका होना, और उसका जाना हमारे जेहन में हमेशा तरोताजा रहेगा। भारतीय क्रिकेट के परिवर्तन के सूत्रधार के रूप में सौरव सदा याद किये जाएँगे।
इस ग्रेट वारियर को हमारा अंतिम सैल्यूट..... ।
ये आलेख समीर की चिट्ठी से....

धन्यवाद....

07 नवंबर 2008

सब गोलमाल है...

चुनाव जीतने के लिए राजनैतिक दल किसी भी हद तक जा सकते हैं। ये मैं नही भारतीय लोकतंत्र का इतिहास बयां करता है। शायद राजनीति भी इसी को कहते हैं। ये भी मैं नही हमारे यंहा के नेताओ के पिछले कारनामे बताते हैं। लोकसभा चुनाव सर पे है, जाहिर है सभी दल जीत के लिए एडी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। एडी-चोटी का जोर मतलब साजिश। बयानबाज़ी तो नेताओ के रास्ते हैं, इसी पर चल के आज के गरीबों के मसीहा अमीरी का स्विस अकाउंट बनते हैं। ओह मैं भटक गया था...तो बात हो रही थी साजिश की। उस साजिश की जो भगवा रंग को बेरंगा करने के लिए महीनो से बचा कर राखी गयी थी। मालेगांव धमाके का तार भगवा रंग से जोड़ कर हाथ अपनी पांचो उँगलियाँ घी में डालने की जुगत में है। कभी इसके लिए सनातन धर्म के संगठनों को जिम्मेवार बताया जाता है, तो कभी आधी पतलून वाले सेवकों को। यंहा तक की कुछ संगठनों को बैन करने की भी कोशिश की जा रही है। साधू-संत भी इसके शिकार हो रहे हैं। खैर इसकी पड़ताल चल रही है। अब दूसरी साजिश....ये है भगवा रंग द्वारा सफ़ेद टोपी उतारने की साजिश। पश्चिम की रीजनल पार्टी द्वारा कुछ राज्यों के लोगों को पिटवा कर दिल्ली में कीचड़ भरे तालाब बनवाने की साजिश। अब कीचड़मय माहौल क्यों बनेगा भाई? आप तो समझ ही गए होंगे .... नही समझे । अरे भाई कीचड़ में ही एक ख़ास तरह के फूल खिलते हैं। सवाल ये उठता है की पिटवाने से फूल कैसे खिलेंगे ...जब लोग पीटेंगे तो और वहा के लोग पीटेंगे जहा की राजनीति सबसे पावरफुल होती है, तो जरूर आग लगेगी, और जब आग लगेगी तो जनपथ तक धुंआ जरूर जाएगा। धुंआ से लोग छातपतायेंगे, तो सफ़ेद टोपी ज़मीन पे गिरेगी ही।
तो भाई मेरे आवाम के तवे पर राजनीति की रोटी मत सेको ...कंही आवाम बिगर गयी तो सत्ता के सपने का सफर सुबह होने से पहले ही टूट जाएगा...

04 नवंबर 2008

व्हाइट हाउस में ब्लैक ओबामा

सुबह से मै टीवी पर टकटकी लगाये बैठा था बीस महीने से चल रहे अमेरिकी चुनावी घमासान का नतीजा देखने के लिए। आज से पहले मै किसी भी दूसरे देशों की राजनीति में ज़्यादा रूचि नही रखता था। २१९ सालो के अमेरिकी लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा पहला चुनावी घमासान जो दिल की बेचैनी को बढ़ा दे। एक-एक कर वोटो की गिनती हो रही थी, इधर मेरी धड़कने भी तेज़ होती जा रही थी। आख़िरकार वो लम्हा आ ही गया और ओबामा जीत गया। बराक ओबामा......अश्वेत ओबामा.....डेमोक्रेटिक ओबामा..... सबका ओबामा अमेरिका का ४४वा राष्ट्रपति चुन लिया गया। ऐसा राष्ट्रपति जो काला है। १७८९ में जॉर्ज वाशिंगटन के बाद अमेरिकी इतिहास में पहली बार कोई अश्वेत इस पद पर बैठा है। अफ्रीकी मूल के ओबामा ने रिपब्लिकन उम्मीदवार जॉन मैक्केन को १५५ के मुकाबले ३३८ वोटो से हराया। इसे एकतरफा जीत कहना ग़लत नही होगा क्योंकि बराक को ५०% से भी ज़्यादा मत मिले। वैसे व्हाइट हाउस पर कब्जा करने के लिए बराक को सिर्फ़ २७० मतों की दरकार थी। जहा तक मेरा मानना है, इस चुनाव को दिलचस्प नही कहा जा सकता। २००४ में जो मुकाबला जॉर्ज बुश और जॉन कैरी के बीच हुआ था वो मजा इस बार नही देखा गया। मै बता दू की बिडेन अमेरिका के उपराष्ट्रपति होंगे। ये लोकतंत्र की ही देन है जो एक दबे-कुचले ओबामा को विश्व के सर्वोच्च पद पर आसीन कर दिया। कुछ साल पहले तक लोग ओबामा के साथ खाना भी पसंद नही करते थे। पर आज वो दुनिया के लिए आदर्श है। २० जनवरी २००९ को बराक अपना पहला कदम सफ़ेद घर में रखेंगे। शिकागो के ग्रांट पार्क में अमेरिकी समय के मुताबिक रात के तकरीबन ग्यारह बजे ओबामा ने अपने देश की आवाम जो लगभग १० लाख की संख्या में मौजूद थे को संबोधित किया। उनके साथ स्टेज पर उनकी बीवी और बच्चे मौजूद थे। सबसे पहले जो बराक ने कही वो थी.... ''एस, वी कैन''... हाँ हमने कर दिया। जनता के साथ-साथ बराक ने अपने परिवार और नानी का भी शुक्रिया अदा किया। सबसे बड़ी बात जो ओबामा ने कही '' हम नया अमेरिका बनायेंगे, आम आदमी की सरकार जिसमे डेमोक्रेसी, लिबर्टी और ओपर्चुनिती होगी''। ग्रांट पार्क में मौजूद लाखों लोगों की आँखे नम थी... ऐसा लग रहा था मानो सभा में मौजूद सभी आदमी सबसे ताक़तवर राष्ट्र का राष्ट्रपति बन गया हो।

रांची के राही

जिस दौर में रहते हैं...
सबसे आगे निकलते हैं।

ऊपर लिखी दो लाइने किसी और ने नही अभी अभी मैंने ही कही है। अपने लिए नही अपने तमाम शहर वासियों के लिए कही है। क्यों कही ये भी आपको बता दू। खनिज में हम सबसे आगे, खेल में भी सबको पछाडे, अख़बार भी कही और का नही अपने शहर का, सबसे पहले सबके दरवाजे पहुचता है। रही बात टेलीविजन की तो उसमे भी हमारा शहर अब सबको चुनौती देगा। बस चंद दिनों का इंतज़ार है। ये 'सफ़र' भी 'रफ़्तार' पकडेगा, और यकीनन सबसे आगे ही चलेगा। चमचमाते चैनलों की रेस में अब रांची भी अपना नाम दर्ज कराने वाला है। जल्द ही हमारे शहर में कुछ चैनल खुल रहे है जिसमे न्यूज़ के साथ-साथ प्रोग्राम भी दिखाए जायेंगे। ये वाकई हमारे लिए गर्व की बात है। ऐसे लोग बधाई के हक़दार हैं, जिन्होंने हम शहर के लोगों को फ़क्र करने का मौका दिया। धन्यवाद ......

03 नवंबर 2008

इंडिया बनाम हिंदुस्तान

बड़ा ही अजीब देश है हमारा। शरीर एक है और आत्मा दो । एक आत्मा इंडिया की है ,जो बड़े शहरो के मॉल , इमारतों में बसती है , दूसरी आत्मा हिंदुस्तानवां की है जो गाँव की पगडंडियो में, शहरो की तंग गलियों में रहती है। इंडिया में सभी साथ मिलके रहते हैं, वहां ना तो क्षेत्र और धर्म के नाम पर झगडा है, और ना ही भाषा की लडाई ही है। इंडिया की टीम जिसमे सिर्फ़ इंडियन हैं ना कोई बिहारी है , ना कोई यूपी वाला और ना ही कोई मराठा। चाहे वे कहीं के भी हों , किसी भाषा में बात करते हों वे हमेशा जीतते हैं। इंडियन अब चाँद पर तिरंगा फहराने की तैयारी में हैं, उनका चंद्रयान मिशन सफलता की ओर कदम बढ़ा चुका है। इंडियन बिजनेसमेन पुरे विश्व को एक मुट्ठी में कर 'वन इंडिया ' का नारा दे रहे हैं।
दूसरी ओर खड़ा है हिंदुस्तानवां जो २८ टुकडो में बँटा है।इससे भी ज्यादा अलग जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र की दीवारे हिन्दुस्तानियों ने आपस में खिंच ली है। यहाँ हिंदू , मुस्लिम , इसाई हैं । बिहारी , मराठी, असामी हैं कोई शायद ही हिन्दुस्तानी हो.....
यही वज़ह है इंडिया डेवेलप है, और हिंदुस्तान मानव विषयक सूचकांक में १२८ पायदान पर खड़ा है.....
आइये हम भी इंडिया की तरह हिंदुस्तान को एक बनाये.....

अपने संस्कार

आज सुबह जब मै घर से ऑफिस के लिए निकल रहा था तो मेरी बेगम ने मुझे शाम को जल्दी घर वापस आने का हुक्म किया। मैंने कहा क्यों भाई आज कुछ खास है क्या? तो उन्होने कहा, छठपर्व है न इसलिए पूजा के लिए कुछ फल और मिठाई मंगवानी है। मै दंग रह गया , वैसे मेरी पत्नी छठ नही करतीं हैं बस पड़ोस की महिला द्वारा अर्ध्य देना चाहतीं हैं। मैं सोच में पड़ गया... वजह भी था क्योंकि मेरी वाइफ कभी पूजा - पाठ नही करतीं और ना ही उन्हें इसके लिए कभी वक्त मिलता है। वो भी मेरी तरह पत्रकार जो ठहरीं
एमबीए और सॉफ्ट वेअर इंजिनीयर बीवी से मै ऐसी उम्मीद भी नही करता था... पर ये छठ जैसे महान पर्व की हीं देन है जो हमें अपनी मिट्टी अपने संस्कार की याद दिलाता है। ........ मैं बगैर कुछ जाहिर किए घर से निकल पड़ा.... और मेरा जवाब था, ठीक है जल्दी आजाऊंगा।

01 नवंबर 2008

एक और रंग दे बसंती

राहुल राज के साथ मुंबई में जो कुछ हुआ वह मुझे एक फ़िल्म रंग दे बसंती की याद दिला गया। राहुल का मकसद किसी को मरना नही था । वो अपनी बात मुंबई पुलिस के सामने रखना चाहता था। माना राहुल ने तरीका ग़लत अपनाया लेकिन किसी मजबूर और अकेले इंसान की बात आज सुनता कौन है, ऐसे में यदि कोई राहुल या रंग दे बसंती के डीजे की तरह उग्र हो जाए तो ये गलत नही । आख़िर ऐसा ही तरीका तो भगत सिंह ने भी अपनाया था , खैर जैसा फ़िल्म में डीजे और उसके साथियों के साथ हुआ वही राहुल के साथ मुंबई पुलिस ने किया। लेकिन ना तो फ़िल्म का डीजे अपनी बात रख पाया था और ना ही असल जिन्दगी का राहुल अपनी बात रख पाया । दोनों की मिली मौत ......संभव है फिल्मी डीजे की तरह राहुल की भी मौत राजनेताओ के इशारे पर ही की गई हो....पर ज़रा सोचिए जिस तरह महारास्ट्र के गृहमंत्री और सामना ने राहुल को बिहारी गुंडा कहा , वो सही था ?गुंडा तो वे लोग हैं जो महारास्ट्र में हिंसा को हवा दे रहे हैं।

सफ़र की शुरुआत

मैंने अपने ब्लॉग का नाम 'सफ़र' इसलिए दिया है ताकि मैं अपनी रोजमर्रा के सफर का एहसास आपसे बाँट सकूँ। पत्रकारिता में सबसे पहले अखबार के सफ़र की शुरुआत हुई, फिर आया रेडियो और टेलीविजन का दौर, पर अब जन-जन में लोकप्रिय हो रही है वेब पत्रकारिता, उसमे भी ब्लॉग का चस्का सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है। ब्लॉग की बढती लोकप्रियता देख मैंने भी अपना ब्लॉग बनाने की ठानी, जिसका नतीजा है 'सफ़र'। बस इस सफ़र में आपसे यही गुजारिश है कि .....

'कभी अलविदा ना कहना' ....... आज के लिए बस इतना ही।