26 मार्च 2009

चंचल बयार....

एक चंचल बयारों सा मुझको मिला वो
जैसे सहरा में पानी का दरिया हँसा हो....
बिलखते दरख्तों की मुस्कान बन कर
मुहब्बत की बारिश को बरसा गया वो....
मुफ़लिस से जीवन में खुशियों को भर के
उम्मीदों की नई पंख बन कर उड़ा वो....
सहारा है मेरे इस तनहा सफ़र का
भरोसे उसी के ये राही चला हो....


कभी कभी वक्त-ए-हालात बदल जाते हैं
हंसती हुई आंखों के भी छाल बदल जाते हैं....
मुस्कुराने का जो दावा करते रहते हैं ताउम्र
उन होठो की मुस्कान के भी चाल बदल जाते हैं....
ए अपने हैं ए गैर, सारी बातें हैं बेकार
ज़रूरत-ए-वक्त पर इंसान के व्यवहार बदल जाते हैं....
ए मेरे हालात है या किस्मत मेरी ऐसी है
जब सोचने बैठा तो अंजाम बदल जाते हैं....
हर दर्द की तासीर है खुशबू-ए-मुहब्बत
जो इश्क़ में जीते हैं उनके नाम बदल जाते हैं....


ढली शाम आज दिल है फ़िर उदास उदास
आने लगी है शायद फ़िर किसी की याद....
ज़ख्म-ए-सज़र सूख चुके थे सालों पहले
जन्मा है फ़िर एक पौधा वर्षों के बाद....
रूठा था सावन ज़मीं की ज़फाई से
जाने होने लगी कैसे बेमौसम बरसात....
मेरे उजडे घर का फ़साना जानती है दुनिया
खाक़ उडाई उसी ने जिसने लगाई थी आग....

17 मार्च 2009

होली मुबारक

होली की छुट्टी में घर गया था। आप सभी से दूर रहने के लिए माफ़ी चाहता हूँ।

बस एक बात दिल को छू गई, इस बार होली पर कोई अशुभ समाचार सुनने को नही मिला। आप जैसे भाई बहन और दोस्तों की ब्लॉग के जरिये जागरूकता फैलाने का ही असर मानता हूँ, जो समाज को कहीं न कहीं सभ्यता की राह दिखा रहा है।

बस आप लोगों को बाद ही सही पर दिल से होली की शुभकामना।

23 फ़रवरी 2009

हमारी ''मर्यादा''

इस लेख को लिखा है मेरे मित्र 'कुंदन कलश' ने। कुंदन हैं तो पत्रकारिता जगत के ही चेहरे पर इस चेहरे के पीछे एक संवेदनशील और भावुक दिल भी धड़कता है जो इस लेख से साफ़ ज़ाहिर होता है। कुंदन ६/७ सालों से मीडिया से जुड़े हैं। इन्होने अपने करियर की शुरुआत जी नेटवर्क से की और आज हमारे संस्थान के प्रमुख सदस्यों में से हैं। मीडिया में अपना योगदान कुंदन विडियो एडिटर और साउंड इंजीनियर के तौर पर दे रहे हैं।
कुंदन अपने करियर को नई ऊंचाई पर ले जायें हम सब यही दुआ करते हैं।
राजीव करूणानिधि


हमारी ''मर्यादा''


जब सीता ने लक्ष्मण रेखा लांघी तो मायावी रावण आया। एक वादा सीता ने तोडा लक्ष्मण से, वजह अपनी भावनाओ पर सीता का वश नही रहा। नतीजा सामने था। लक्ष्मण ने तो मर्यादा की रेखा खींच रखी थी पर सीता नही रुकी। ऐसा नही था कि सीता नादान थी, नासमझ थी, या फ़िर उसे पता ही नही था कि लक्ष्मण रेखा लांघने का क्या अंजाम होगा। वैसे जब भी लक्ष्मण रेखा की मर्यादा तोडी जाती है मायावी रावण सामने खड़ा मिलता है, हाँ सिर्फ़ स्वरुप बदला रहता है।
एक ऐसा ही मायावी रावन ऍम ऍम एस के रूप में इन दिनों अक्सर सामने आ जाया करता है। हाल में ही एक निजी टीवी चैनल पर ऐसा ही ऍम ऍम एस प्रकरण सामने आया है। एक अबला का छल से ऍम ऍम एस बना लिया गया, मीडिया में खलबली मच गई। मामले को दबाने के बजाय टी आर पी कमाने का हथकंडा बना दिया गया। दुशासन मीडिया परत दर परत उसे नंगा करती जा रही है।
समझ में नहीं आता कि मीडिया इस खबर को दिखा कर समाज को किस ओर ले जा रही है। जिस खबर को दो मिनट से ज्यादा तरजीह नहीं दी जा सकती उसे पूरे दो दिनों तक तड़का मार के दिखाया जा रहा है। मीडिया की हर ख़बर समाज को प्रभावित करती है।
देखा जाये तो इस तरह की हरकतों के खिलाफ़ आवाज़ उठाना गलत नहीं है पर किसी के व्यक्तिगत जीवन को परदे पर लाना निहायत ही गलत है। इसे रोका तो नहीं जा सकता पर दिखाने के पैमाने ज़रूर तय किय जा सकते हैं। ऐसे ही हर भारतीय नारी को अपनी भावनाए जाहिर करने का हक़ है पर ऍम ऍम एस रुपी रावण से बचने के लिये हर नारी को अपनी मर्यादा भी तय करनी होगी। नहीं तो कभी रावण, तो कभी दुशासन मीडिया इसे हर बार नंगा करेगी।
मै अपनी अभिव्यक्ति को सिर्फ़ पन्नो में नहीं रखना चाहता। मेरा अनुरोध है उन सभी लोगों से, कृपया समाज और अपनी संस्कृति की मर्यादा की रक्षा के लिये हर ज़रूरी कदम उठायें, ताकि फिर कोई दुबारा ऍम ऍम एस का शिकार न हो पाए। मीडिया वालों को भी ऐसी ख़बर परोसने के बजाय अपना दायरा समझना चाहिए। किसी की बहु बेटी को बाजारू बनाने से पहले एक बार अपनी माँ को भी याद करना चाहिए।

08 फ़रवरी 2009

कुछ मेरी कलम से...

मेरी पलकों को भी आराम दे दे।
बहुत धूप है थोडी शाम दे दे।
मै था गुमराह राही तेरी चाह में
ऐसी कश्ती पर था जो थी मजधार में
ना है कश्ती का दोष ना किसी राह की
मेरे कदमो को ही इल्ज़ाम दे दे
बहुत धूप है थोडी शाम दे दे।

सुबह जब साँस लेती है
हवा जब मुस्कुराती है
तो रात के बिस्तर से
सोयी उम्मीद उठती है।
होठ कपकपाती हुई खुलती है
फिर नज़र कुछ तलाशती है
एक अनजानी ख्वाहिश लिये
आशाएं आंख मलती है
धड़कने चलती है फिर
नए जोश और उमंग से
कि शायद आज
वक़्त के किसी मोड़ पर तुम मिलोगे।
हाँ मन यही सपने बुनती है
नज़रे तुम्हारी राह तकती है।

ग़म के आगोश में जब ज़ख्म करवट लेता है।
एक गुज़रा हुआ कल आँखों से टपकता है।
तासीर घाव का कुछ इस क़दर बेचैन किया।
जैसे कल की नहीं आज़ की बात लगता है।
दीवारों को सुनाता हूँ कहानी अपनी।
इस शहर में मेरा कोई नहीं रहता है।
न जुस्तजू किसी की न ख्वाहिशें किसी का।
फ़िर क्यों किसी की बात करता है।
ख़लिश है मुकद्दर फ़िर क्यों कोई बदनाम।
वैसे अपना ही अपनों का दिल तोड़ता है।

ये रिश्ते भी बड़े अजीब होते हैं
जो करीब है वही दूर होते हैं।
लोग मिलते हैं फ़िर बिछड़ते हैं
ज़िन्दगी के बस यही दस्तूर होते हैं।
इस भाग दौड़ की दुनिया में
पैसों का चेहरे पर गुरूर होते हैं।
इश्क की राह चलने वालों को
केवल तन्हाई नसीब होते हैं।
दुश्मनों के भी कुछ उसूल होते हैं
मेरे दोस्त ही मेरे रक़ीब होते हैं।
बंद आँखे, ख़्वाब हर महफूज़ होते हैं
पलक खुलते सारे सपने चूर होते हैं।
तिनका चुन चुन घोंसला बनाती माँ है
पर निकलते ही परिंदे दूर होते हैं।