25 दिसंबर 2008

इश्क की दास्ताँ है प्यारे...अपनी अपनी जबान है प्यारे...

''दिले नादां तुझे हुआ क्या है, आखिर इस दर्द की दवा क्या है''... प्यार के कितने नाम हैं पर सबका मतलब एक है, एहसास एक है। ऐसा एहसास जिसे पाकर लोग अपनी भूख, नींद सब कुछ भूल जाते हैं। सिर्फ उस प्यार का ख्याल दिल में रहता है जिसे हर पल अपनी नज़रों के सामने रखना चाहते है, ढेर सारी बाते करना चाहते है। किसी ने कहा है कि ''women are made to be loved not understood'' पर मेरा मानना है कि जिसे आप प्यार करते हैं उसकी ज़ज्बात का ख्याल रखने के लिये उसे समझना बहुत ज़रूरी है। इश्क पर बड़े बड़े दिग्गजों ने बड़ी बड़ी बाते कही हैं पर मेरा मानना है कि प्यार बस प्यार है, किसी तरह से, कहीं भी, कभी भी, किसी से भी हो सकता है। इसके मायने लिखना मुश्किल ही नहीं शायद नामुमकिन है। एक अनमोल तोहफा जिसने पाया है वही जानता है। इसमें कोई दगा या बेवफाई नहीं होती, न कोई वादा न कोई इरादा सिर्फ खुद का समर्पण होता है। ये मुहब्बत का ही असर है जो उप मुख्यमंत्री को चाँद मोहम्मद बना दिया, मकबरे को ताज महल बना दिया और अकबर को जोधा का गुलाम बना दिया। वैसे किसी भी रिश्ते में स्पर्श, दीवानगी, मर्यादा और प्रेम का बड़ा महत्व होता है। शेक्सपीयर कहते है कि ''प्यार आँखों से नहीं मन से होता है''. वहीँ किसी शायर ने कहा है '' कौन कहता है मुहब्बत की ज़बां होती है, ये हकीकत तो निगाहों से बयां होती है''।
यूपी का एक छोटा सा गाँव, एक लड़का और लड़की ने अपनी जाति से बाहर अपनी मर्ज़ी से शादी कर ली। पंचायत ने फैसला लिया कि पुरे समाज का अपमान करने वाले जोड़े को जिंदा जला दिया जाए। लोगों की भीड़ से किसी ने विरोध नहीं किया। दोनों जला दिए गए। ऐसा वाक़या ये सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर प्रेम को पवित्र मानने वाला समाज, इसी का गला क्यों घोट देना चाहता है। मेरी माने तो ऐसी स्थिति ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में पाई जाती है, जहाँ समाज मजबूत होता है और अपने कानून को ज्यादा सख्ती से लागू करता है। जबकि शहरी क्षेत्र में ठीक इसके उलट संबंधों में ढीलापन होता है और समाज कमजोर होता है। इसी गुण ने शहरी वयवस्था को उदार बना दिया है। भारत का इतिहास आक्रमणों का इतिहास रहा है, जिससे कई तरह के धर्मों और जाति का विस्तार हुआ, और यही धर्म और जाति प्रेम हत्या की वजह बनी। एक ख़ास विवाह की प्रणाली स्त्री और पुरुष के पास विकल्पों की कमी कर देता है और यहीं पर प्रेम शर्तों से जुड़ जाता है। मसलन जिससे भी आपको प्रेम होता है, सबसे पहले वो आपके धर्म का हो, अगर ऐसा हुआ तो वो आपकी जाति का होना चाहिए, और आपके माता पिता की कई पीढियों से समान गोत्र का नहीं होना चाहिए। आपके गाँव और कस्बे का भी नहीं होना चाहिए। इतनी सारी शर्तों को पूरा करना प्रेम में लगभग नामुमकिन हो जाता है। इस तरह के सामाजिक नियम विवाह से पहले प्रेम की उम्मीद को ही ख़त्म कर देता है। दरअसल प्रेम हमेशा आपको नजदीक के वातावरण से ही मिल पता है। अधिकतर मामलों में प्रेम पड़ोस या इसी तरह के संपर्क के दौरान ही पनपता है।
ज्यादातर मामलों में लोग प्यार और आकर्षण में फर्क नहीं समझते। दरअसल भारतीय सामाजिक ढांचा तेजी से बदलती हुई वयवस्था है, जो वेस्टर्न कल्चर को फॉलो कर रही है। इससे नई पीढियों को मिले जुले वातावरण से दो चार होना पड़ रहा है। जहाँ लड़के लड़किओं के संवाद के अवसर बढ रहे हैं और इसी संवाद स्वतंत्रता ने दोनों के बीच आकर्षण बढाया है।
कवि और लेखक हमेशा कहते हैं कि प्यार को पाना यानी जन्नत की एक झलक देख लेना है। एक ऐसी दुनिया में चले जाना जहाँ खुशियाँ इंतज़ार करती हो, लेकिन हकीकत इसके साफ़ उलट है। इतिहास गवाह है कि प्रेम को जितना ज्यादा कुचला जाता है, वह उतना ही ज्यादा पनपता है। मशहूर लेखक एम स्कॉट के अनुसार प्रेम में बहुत गहराई होती है। यह सामान्य से ख़ास बनने का एहसास देता है। एक ताकत आपके अन्दर अपने आप पनपती है, जो हर परिस्थिति का सामना करने की प्रेरणा देती है। लैला मजनू, हीर रांझा, सोहिणी महिवाल, शीरी फरहाद, पृथ्वीराज संयोगिता, सचिन पायलट सारा, ह्रितिक सुजैन, शाहरुख़ गौरी, श्रीजा शिरीष, भारती यादव नीतिश कटारा, शिल्पी गौतम और अजित अगरकर फातिमा। ये ऐसे प्रेमियों का जोड़ा है जो कहीं से भी कमजोर होता नहीं दिखता है। इन्हें अलग होने का ग़म नहीं होता, बस इनका प्यार जिंदा रहना चाहिए। पेरेंट्स और समाज को इस तरह के रिश्तों के बीच दीवार नहीं बनना चाहिए। प्रेम जैसे शब्द के साथ घृणा, अपमान, विरोध कहीं से भी न मिलते हैं और न ही प्रेम के सामने टिक पाते हैं। किसी को भी उसका प्रेम दे देने का मतलब है उसे ज़िन्दगी दे देना। यह इज्ज़त से कहीं ऊँची और पूजनीय है। सदियों से सज़ा का पात्र बना प्रेम असल में नफ़रत का नही मोहब्बत का हक़दार है। नफरत करके उस दुनिया को नहीं बसाया जा सकता जो प्रेम की नींव पर खड़ी है।
शादी से पहले प्यार का ट्रेंड इंडिया में ७० के दशक में शुरू हुआ और धीरे धीरे इसने रफ़्तार पकड़ी। समाज के वेस्टर्न रंग ने महिलाओं को मजबूती दी और ताकत का केंद्र युवाओं को माना जाने लगा। आज के टीवी पर मॉडर्न इंडियन सोसाइटी समलैंगिकता जैसे मुद्दे पर खुलकर बात करता है। सामाजिक बंधन ढीले हुए हैं। लिव इन रिलेशनशिप जैसे मामलों को युवा खुले तौर पर शान से उजागर कर रहे हैं। पेरेंट्स बच्चों को कितना भी संभाल कर रखे लेकिन इन्टरनेट नाम का शैतान आपके घर में घुसकर आपके सारे बंधन तोड़ सकता है। सेक्स सिम्बल फैक्टर रिश्तों के बनने बिगड़ने में बड़ा रोल निभा रहा है। मोबइल और इन्टरनेट के इस दौर में पहली नज़र का प्यार बेकार हो चूका है। अब लोग प्यार में पड़ते नहीं, बल्कि रिलेशनशिप की शुरुआत करते है। यूनिसेक्स और बिकनी के इस युग में कल्पना मानो ख़त्म ही हो चुकी है और न ही जुदाई में वो कशिश बाकी है। अब लोग तकिये को आगोश में लेकर पड़े नहीं रहते और न ही इस बात का तसब्बुर करते हैं कि ' उसने' क्या पहना होगा। बस फोन उठाइए और पूछ लीजिये। अब चिट्ठी लिखने के लिये शायर मिजाज़ दोस्त की दरकार नहीं है, वजह है 'I love you' कहने वाले कार्ड्स बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। रेडियो, टीवी और सिनेमा में प्रेम का व्यापार बड़े आयाम अख्तियार कर चूका है। रेडियो जॉकी अब प्यार के दलाल हो गए हैं। विज्ञान अब कामदेव की नई दूत है। अब लडकियां भी पहल करने लगी हैं। रोमांस अब ज्यादा शारीरिक हो गया है। साठ के दशक की रूमानी नज़र अब महकते जिस्म में तब्दील हो गई है। मानो इश्क वासना की राह पकड़ चूका है। ठीक नहीं चल रहे सम्बन्ध को पुराने पुर्जे की तरह बदला जा रहा है। प्रेम का प्रतीक तितलियाँ, फूल और शर्मीलापन अब सेक्सी बॉडी लैंग्वेज के आगे बौना हो चूका है। आधुनिक प्रेम की रफ़्तार इतनी तेज़ है कि प्रेमिओं के पास इसे महसूस करने और उन खूबसूरत लम्हों को जीने का वक़्त नहीं है। वैसे मोहब्बत में ऐसा कई बार होता है जब कपल ग़लतफ़हमी का शिकार बन जाते हैं। एक दूसरे पर अपना अधिकार समझने लगते हैं। रिश्तों को मजबूत बनाए रखने के लिये स्वतन्त्रता और भावना का अच्छा बैलेंस होना ज़रूरी है। जैसे ही ये बैलेंस बिगड़ता है रिश्ते टूट जाते हैं। ''भला बुरा ना कोई रूप से कहलाता है, कि दृष्टि-भेद ही सब दोष-गुण दिखाता है। कोई कमल की कली ढूंढ़ता है कीचड़ में, किसी को चाँद में भी दाग़ नज़र आता है।'' इश्क के मायने उम्र, अनुभव और ज्ञान के साथ बदलता रहता है। वैसे जहाँ विवेक से नही जाया जा सकता है, वहां प्रेम से पहुंचा जा सकता है। प्रेम चाहे किसी व्यक्ति से हो, शक्ति या भक्ति से, भावना उसमे डूबकर एकाकार होती है। राधा कृष्ण की रास लीला में दोनों इतने लीन हो जाते कि पता नहीं चलता कि कौन राधा और कौन कृष्ण है।
इश्क की बाज़ी ऐसी बाज़ी, जो खोये वो पाए।
प्रेम नगर में वो ही बने कुछ, जो पहले मिट जाए।

23 दिसंबर 2008

ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समंदर कर दे, या छलकते हुए आँखों को भी पत्थर कर दे...

आतंकी हमलों को देखते हुए गोवा के सीएम ने नए साल के जशन पर रोक क्या लगाई, बवाल मच गया। मेरे मित्र संदीप ने इसके ख़िलाफ़ ब्लॉग भी लिख डाली। तमाम तरह की बातें शुरू हो गयी। कहा जाने लगा कि हम डरपोक हैं, हमारी सुरक्षा तंत्र ठीक नहीं है, फलाना...फलाना। आवाज़ तो उठेगी ही, उठनी भी चाहिए और आवाज़ तेज़ होगी तो हंगामा भी होगा। खैर किसी भी मुआमले में आवाज़ उठाना हमारा अधिकार भी है, और हमें अपने अधिकार से कोई वंचित भी नहीं कर सकता। हो सकता है लोग इस फैसले को नहीं माने। वजह बताई जायेगी कि हम किसी से डरते नहीं। बहुत अच्छे।
पिछले दो सालों में नए साल के जशन के दौरान दिल्ली, मुंबई और गोवा में कुछ लड़कियों के इज्ज़त पर हमला हुआ था। कपडे फार डाले गए थे, अगवा करने की कोशिश भी की गई थी। ऐसा नहीं था कि वहां सुरक्षा बल तैनात नहीं थे। उनकी आखों के सामने ही इस तरह की नीच हरकत को अंजाम दिया गया।
खैर ये आतंकी हमला नहीं था, क्योंकि वहसी हमलावर देश के ही थे। कोरी कार्रवाई हुई। बात आई गई हो गई।
दुःख इस बात का नहीं है कि हमारी सरकार निकम्मी है, दुःख इस बात का है कि हमें जशन मनाने से रोका जा रहा है। आतंकवाद से डर लगता है क्योंकि हम मरने से डरते हैं। मरना सबसे ज्यादा ख़तरनाक होता है, पर उससे भी ज्यादा ख़तरनाक होता है अपनी आँखों के सामने अपनी बहन बेटी को नंगा होते देखना। इंसान सौ बार मरना पसंद करेगा पर ऐसी गिरी हरकत कभी बर्दाश्त नहीं करेगा। नए साल का जशन मनाइए पर ये भी संकल्प लीजिये कि ऐसी कोई भी घटिया हरकत किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं करेगे। देश को ख़तरा ख़ाली आतंकियों से ही नहीं ऐसे असमाजिक लोगों से भी है जो मानवता को शर्मसार करती है, देश की शान को आंच देते है।
ऐसे लोग उस आतंकिओं से ज्यादा ख़तरनाक है जो अपने ही देश में रह कर अपनी ही मिटटी को ज़लील करते हैं। मै आप सभी भाई बंधू से अपील करता हु कि ऐसे सभी ज़ाहिलों को पहचानिये और शख्त से शख्त सज़ा दिलवाइए, ताकि इस पाक़ मौकों पर खुलकर, निफिक्र होकर जशन मनाया जा सके.

04 दिसंबर 2008

चाहे गीता वाचिए या पढिये कुरान, तेरा मेरा प्यार ही इस पुस्तक का ज्ञान....

आतंकवाद, नस्लवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद और सम्प्रदायेवाद सभी अपराध की श्रेणी में आते हैं। इन सभी से कही न कही देश की अखण्डता को ठेस पहुचता है। कुछ आतंकियों ने मुंबई पर हमला कर भारत को घायल कर दिया. ये हमलावर बाहर के थे. बवाल मच गया. कुछ दिनों पहले ऐसा ही हमला बिहार, झारखण्ड और यूपी के लोगों पर हुआ. इस बार हमलावर देश के ही थे. दोनों ही हमलों में समानता नहीं थी, पर मकसद एक था देश को नुकसान। दोनों ही अपराध थे, एक आतंकवाद तो दूसरा क्षेत्रवाद. दोनों से देश तोड़ने की बू आती है. जब बिहार के लोगो को पीटा जा रहा था तब यही मराठी चुप थे। दबी जबान से समर्थन भी की जा रही थी, उन्हें अपने नेताओं पर गर्व था. पर इस बार महाराष्ट्र की बात थी तो सारे लोग गुस्सा जताने सड़क पर उतर आये, जिस नेता पर गर्व था उसी पर उंगली उठाई जाने लगी. कहा गया ये सियासी लोमडी हैं सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते है। मोमबत्तियां जलाई गई, नुक्कड़-नाटक किये गए, फ़िल्मी कलाकारों ने ब्लॉग लिख कर तो कभी टीवी पर आदर्शवादी टिपण्णी कर अपने बाज़ार भाव बढाते रहे, मानव श्रंखला बनायीं गयी, भारत माता की जयजयकार हुई. तब कहाँ थे ये मुंबई के भाई-बहन जब ऐसा ही हमला गैर मराठिओं पर हुआ. जाने भी गई, कई लोग तो अपंग बना दिए गए. क्या तब देश घायल नहीं हुआ, क्या तब भारत के आँचल को नहीं खिंचा गया. जब अपनी जान पर बात आई तो रोड पर निकल आये, सुरक्षा की गुहार लगाई. तब क्यों नहीं बाहर आकर अपने ही भाई-बंधुओं को मरने से बचाया. ये मुंबई के लोगों की दोहरी मानसिकता को दर्शाता है। इस हमले से अमिताभ भी डर गए. तकिये के नीचे बन्दूक रख कर सोये और ब्लॉग में अपनी संवेदना जाहिर की. पर क्या बच्चन जी आपने कभी उस माँ के बारे में सोचा है जिसका एकलौता बेटा मुंबई अफसर बनने गया था पर लौटा लाश बन कर। उस राहुल राज के बारे में ब्लॉग में क्यों नहीं लिखा जब महाराष्ट्र की पुलिस गोलियों से उसके माथे पर अपराधी लिख दिया. ऐसी ओछी संवेदना, संवेदना नहीं स्वार्थ है. ऐसे सितारों के भीतर अगर संवेदना होती तो ये सिर्फ अपने परिवार की भलाई के लिये मंदिर में सात करोड़ का मुकुट नहीं चढाते, बल्कि गरीबों को दो जुन की रोटी मिले इसके लिये उपाए तलाशते. ऐसे हजारो लोग बेरोजगार हो चुके हैं जिसे मुंबई से निकल दिया गया. चैन से सोने वालो कभी आपने सोचा है कि इन गरीबों के चूल्हों पर पकाने के लिये अनाज तो दूर जलावन के लिये लकडी तक नहीं है. बिहार के नेताओं को कोसा जाता है कि उन्होंने विकास नहीं किया इसलिए लोग दूसरे राज्यों में काम करने जाते हैं, ठीक है कुछ हद तक ये बात मान ली जाए, पर मराठी नेता ने कैसा विकास किया जो अदना सा आतंकी पुरे तीन दिनों तक बन्दूक की नोक पर इन्हें नाचता रहा. खैर.... विकसित महाराष्ट्र के लिये ये छोटी बात है, भाई ऐसे विकास से हम पिछडे ही अच्छे हैं, जो अपने लोगो का दर्द समझते हैं। और हा ऐसे ऐसे मराठी नेता से बिहारी नेता अच्छे है जो कम से कम १९० लाशों की ढेर पर बैठ कर ये तो नहीं बोलते की ये तो छोटी बात है. एक और गौर करने लायक बात है, जब आतंकी लाशों का ढेर लगा रहा था, वही क्षत्रपति शिवाजी स्टेशन पर चाय बेचने वाला एक बिहारी युवक ने करीब ३०० लोगो की जान बचाई. शायद उसके मन में ये भावना नहीं थी कि वो जिसकी जान बचा रहा है मराठी है या बिहारी. अगर ठाकरे की सेना इस बिहारी युवक को मुंबई से भगा दिया होता तो शायद मरने वालो की संख्या १९० नहीं ४९० होता. मेरे भाई सिर्फ अपने घर की तरक्की देखोगे तो घर को लूटता हुआ भी तुम्हे ही देखना होगा. मेरी समझ से मुंबई के लोगो का सड़क पर प्रदर्शन करना महज डर की निशानी है, बेमानी है. खाली आतंकवाद के नाम पर बवाल मचाने वाले क्या कभी सोचा है कि क्षेत्रवाद और सम्प्रदायेवाद से भी देश को खतरा है. आज की ये छोटी मगर खतरनाक क्षेत्रवाद की घटना कब विकराल रूप धारण कर लेगी शायद ही कोई मुंबई की आवाम समझती होगी. हम तभी आपकी बहादुरी समझेंगे जब आप देश पर लगने वाले हर दाग, देश पर उठने वाली हर ऊँगली के खिलाफ मोमबत्ती जलाओगे, भाईचारे की दुआ करोगे, छोटी मानसिकता से उबर कर सबको गले लगाओगे और किसी भी ''वाद'' को पनपने नहीं दोगे. तभी बनेगा ''अपना मुंबई, आमची मुंबई''