25 दिसंबर 2008

इश्क की दास्ताँ है प्यारे...अपनी अपनी जबान है प्यारे...

''दिले नादां तुझे हुआ क्या है, आखिर इस दर्द की दवा क्या है''... प्यार के कितने नाम हैं पर सबका मतलब एक है, एहसास एक है। ऐसा एहसास जिसे पाकर लोग अपनी भूख, नींद सब कुछ भूल जाते हैं। सिर्फ उस प्यार का ख्याल दिल में रहता है जिसे हर पल अपनी नज़रों के सामने रखना चाहते है, ढेर सारी बाते करना चाहते है। किसी ने कहा है कि ''women are made to be loved not understood'' पर मेरा मानना है कि जिसे आप प्यार करते हैं उसकी ज़ज्बात का ख्याल रखने के लिये उसे समझना बहुत ज़रूरी है। इश्क पर बड़े बड़े दिग्गजों ने बड़ी बड़ी बाते कही हैं पर मेरा मानना है कि प्यार बस प्यार है, किसी तरह से, कहीं भी, कभी भी, किसी से भी हो सकता है। इसके मायने लिखना मुश्किल ही नहीं शायद नामुमकिन है। एक अनमोल तोहफा जिसने पाया है वही जानता है। इसमें कोई दगा या बेवफाई नहीं होती, न कोई वादा न कोई इरादा सिर्फ खुद का समर्पण होता है। ये मुहब्बत का ही असर है जो उप मुख्यमंत्री को चाँद मोहम्मद बना दिया, मकबरे को ताज महल बना दिया और अकबर को जोधा का गुलाम बना दिया। वैसे किसी भी रिश्ते में स्पर्श, दीवानगी, मर्यादा और प्रेम का बड़ा महत्व होता है। शेक्सपीयर कहते है कि ''प्यार आँखों से नहीं मन से होता है''. वहीँ किसी शायर ने कहा है '' कौन कहता है मुहब्बत की ज़बां होती है, ये हकीकत तो निगाहों से बयां होती है''।
यूपी का एक छोटा सा गाँव, एक लड़का और लड़की ने अपनी जाति से बाहर अपनी मर्ज़ी से शादी कर ली। पंचायत ने फैसला लिया कि पुरे समाज का अपमान करने वाले जोड़े को जिंदा जला दिया जाए। लोगों की भीड़ से किसी ने विरोध नहीं किया। दोनों जला दिए गए। ऐसा वाक़या ये सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर प्रेम को पवित्र मानने वाला समाज, इसी का गला क्यों घोट देना चाहता है। मेरी माने तो ऐसी स्थिति ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में पाई जाती है, जहाँ समाज मजबूत होता है और अपने कानून को ज्यादा सख्ती से लागू करता है। जबकि शहरी क्षेत्र में ठीक इसके उलट संबंधों में ढीलापन होता है और समाज कमजोर होता है। इसी गुण ने शहरी वयवस्था को उदार बना दिया है। भारत का इतिहास आक्रमणों का इतिहास रहा है, जिससे कई तरह के धर्मों और जाति का विस्तार हुआ, और यही धर्म और जाति प्रेम हत्या की वजह बनी। एक ख़ास विवाह की प्रणाली स्त्री और पुरुष के पास विकल्पों की कमी कर देता है और यहीं पर प्रेम शर्तों से जुड़ जाता है। मसलन जिससे भी आपको प्रेम होता है, सबसे पहले वो आपके धर्म का हो, अगर ऐसा हुआ तो वो आपकी जाति का होना चाहिए, और आपके माता पिता की कई पीढियों से समान गोत्र का नहीं होना चाहिए। आपके गाँव और कस्बे का भी नहीं होना चाहिए। इतनी सारी शर्तों को पूरा करना प्रेम में लगभग नामुमकिन हो जाता है। इस तरह के सामाजिक नियम विवाह से पहले प्रेम की उम्मीद को ही ख़त्म कर देता है। दरअसल प्रेम हमेशा आपको नजदीक के वातावरण से ही मिल पता है। अधिकतर मामलों में प्रेम पड़ोस या इसी तरह के संपर्क के दौरान ही पनपता है।
ज्यादातर मामलों में लोग प्यार और आकर्षण में फर्क नहीं समझते। दरअसल भारतीय सामाजिक ढांचा तेजी से बदलती हुई वयवस्था है, जो वेस्टर्न कल्चर को फॉलो कर रही है। इससे नई पीढियों को मिले जुले वातावरण से दो चार होना पड़ रहा है। जहाँ लड़के लड़किओं के संवाद के अवसर बढ रहे हैं और इसी संवाद स्वतंत्रता ने दोनों के बीच आकर्षण बढाया है।
कवि और लेखक हमेशा कहते हैं कि प्यार को पाना यानी जन्नत की एक झलक देख लेना है। एक ऐसी दुनिया में चले जाना जहाँ खुशियाँ इंतज़ार करती हो, लेकिन हकीकत इसके साफ़ उलट है। इतिहास गवाह है कि प्रेम को जितना ज्यादा कुचला जाता है, वह उतना ही ज्यादा पनपता है। मशहूर लेखक एम स्कॉट के अनुसार प्रेम में बहुत गहराई होती है। यह सामान्य से ख़ास बनने का एहसास देता है। एक ताकत आपके अन्दर अपने आप पनपती है, जो हर परिस्थिति का सामना करने की प्रेरणा देती है। लैला मजनू, हीर रांझा, सोहिणी महिवाल, शीरी फरहाद, पृथ्वीराज संयोगिता, सचिन पायलट सारा, ह्रितिक सुजैन, शाहरुख़ गौरी, श्रीजा शिरीष, भारती यादव नीतिश कटारा, शिल्पी गौतम और अजित अगरकर फातिमा। ये ऐसे प्रेमियों का जोड़ा है जो कहीं से भी कमजोर होता नहीं दिखता है। इन्हें अलग होने का ग़म नहीं होता, बस इनका प्यार जिंदा रहना चाहिए। पेरेंट्स और समाज को इस तरह के रिश्तों के बीच दीवार नहीं बनना चाहिए। प्रेम जैसे शब्द के साथ घृणा, अपमान, विरोध कहीं से भी न मिलते हैं और न ही प्रेम के सामने टिक पाते हैं। किसी को भी उसका प्रेम दे देने का मतलब है उसे ज़िन्दगी दे देना। यह इज्ज़त से कहीं ऊँची और पूजनीय है। सदियों से सज़ा का पात्र बना प्रेम असल में नफ़रत का नही मोहब्बत का हक़दार है। नफरत करके उस दुनिया को नहीं बसाया जा सकता जो प्रेम की नींव पर खड़ी है।
शादी से पहले प्यार का ट्रेंड इंडिया में ७० के दशक में शुरू हुआ और धीरे धीरे इसने रफ़्तार पकड़ी। समाज के वेस्टर्न रंग ने महिलाओं को मजबूती दी और ताकत का केंद्र युवाओं को माना जाने लगा। आज के टीवी पर मॉडर्न इंडियन सोसाइटी समलैंगिकता जैसे मुद्दे पर खुलकर बात करता है। सामाजिक बंधन ढीले हुए हैं। लिव इन रिलेशनशिप जैसे मामलों को युवा खुले तौर पर शान से उजागर कर रहे हैं। पेरेंट्स बच्चों को कितना भी संभाल कर रखे लेकिन इन्टरनेट नाम का शैतान आपके घर में घुसकर आपके सारे बंधन तोड़ सकता है। सेक्स सिम्बल फैक्टर रिश्तों के बनने बिगड़ने में बड़ा रोल निभा रहा है। मोबइल और इन्टरनेट के इस दौर में पहली नज़र का प्यार बेकार हो चूका है। अब लोग प्यार में पड़ते नहीं, बल्कि रिलेशनशिप की शुरुआत करते है। यूनिसेक्स और बिकनी के इस युग में कल्पना मानो ख़त्म ही हो चुकी है और न ही जुदाई में वो कशिश बाकी है। अब लोग तकिये को आगोश में लेकर पड़े नहीं रहते और न ही इस बात का तसब्बुर करते हैं कि ' उसने' क्या पहना होगा। बस फोन उठाइए और पूछ लीजिये। अब चिट्ठी लिखने के लिये शायर मिजाज़ दोस्त की दरकार नहीं है, वजह है 'I love you' कहने वाले कार्ड्स बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। रेडियो, टीवी और सिनेमा में प्रेम का व्यापार बड़े आयाम अख्तियार कर चूका है। रेडियो जॉकी अब प्यार के दलाल हो गए हैं। विज्ञान अब कामदेव की नई दूत है। अब लडकियां भी पहल करने लगी हैं। रोमांस अब ज्यादा शारीरिक हो गया है। साठ के दशक की रूमानी नज़र अब महकते जिस्म में तब्दील हो गई है। मानो इश्क वासना की राह पकड़ चूका है। ठीक नहीं चल रहे सम्बन्ध को पुराने पुर्जे की तरह बदला जा रहा है। प्रेम का प्रतीक तितलियाँ, फूल और शर्मीलापन अब सेक्सी बॉडी लैंग्वेज के आगे बौना हो चूका है। आधुनिक प्रेम की रफ़्तार इतनी तेज़ है कि प्रेमिओं के पास इसे महसूस करने और उन खूबसूरत लम्हों को जीने का वक़्त नहीं है। वैसे मोहब्बत में ऐसा कई बार होता है जब कपल ग़लतफ़हमी का शिकार बन जाते हैं। एक दूसरे पर अपना अधिकार समझने लगते हैं। रिश्तों को मजबूत बनाए रखने के लिये स्वतन्त्रता और भावना का अच्छा बैलेंस होना ज़रूरी है। जैसे ही ये बैलेंस बिगड़ता है रिश्ते टूट जाते हैं। ''भला बुरा ना कोई रूप से कहलाता है, कि दृष्टि-भेद ही सब दोष-गुण दिखाता है। कोई कमल की कली ढूंढ़ता है कीचड़ में, किसी को चाँद में भी दाग़ नज़र आता है।'' इश्क के मायने उम्र, अनुभव और ज्ञान के साथ बदलता रहता है। वैसे जहाँ विवेक से नही जाया जा सकता है, वहां प्रेम से पहुंचा जा सकता है। प्रेम चाहे किसी व्यक्ति से हो, शक्ति या भक्ति से, भावना उसमे डूबकर एकाकार होती है। राधा कृष्ण की रास लीला में दोनों इतने लीन हो जाते कि पता नहीं चलता कि कौन राधा और कौन कृष्ण है।
इश्क की बाज़ी ऐसी बाज़ी, जो खोये वो पाए।
प्रेम नगर में वो ही बने कुछ, जो पहले मिट जाए।

23 दिसंबर 2008

ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समंदर कर दे, या छलकते हुए आँखों को भी पत्थर कर दे...

आतंकी हमलों को देखते हुए गोवा के सीएम ने नए साल के जशन पर रोक क्या लगाई, बवाल मच गया। मेरे मित्र संदीप ने इसके ख़िलाफ़ ब्लॉग भी लिख डाली। तमाम तरह की बातें शुरू हो गयी। कहा जाने लगा कि हम डरपोक हैं, हमारी सुरक्षा तंत्र ठीक नहीं है, फलाना...फलाना। आवाज़ तो उठेगी ही, उठनी भी चाहिए और आवाज़ तेज़ होगी तो हंगामा भी होगा। खैर किसी भी मुआमले में आवाज़ उठाना हमारा अधिकार भी है, और हमें अपने अधिकार से कोई वंचित भी नहीं कर सकता। हो सकता है लोग इस फैसले को नहीं माने। वजह बताई जायेगी कि हम किसी से डरते नहीं। बहुत अच्छे।
पिछले दो सालों में नए साल के जशन के दौरान दिल्ली, मुंबई और गोवा में कुछ लड़कियों के इज्ज़त पर हमला हुआ था। कपडे फार डाले गए थे, अगवा करने की कोशिश भी की गई थी। ऐसा नहीं था कि वहां सुरक्षा बल तैनात नहीं थे। उनकी आखों के सामने ही इस तरह की नीच हरकत को अंजाम दिया गया।
खैर ये आतंकी हमला नहीं था, क्योंकि वहसी हमलावर देश के ही थे। कोरी कार्रवाई हुई। बात आई गई हो गई।
दुःख इस बात का नहीं है कि हमारी सरकार निकम्मी है, दुःख इस बात का है कि हमें जशन मनाने से रोका जा रहा है। आतंकवाद से डर लगता है क्योंकि हम मरने से डरते हैं। मरना सबसे ज्यादा ख़तरनाक होता है, पर उससे भी ज्यादा ख़तरनाक होता है अपनी आँखों के सामने अपनी बहन बेटी को नंगा होते देखना। इंसान सौ बार मरना पसंद करेगा पर ऐसी गिरी हरकत कभी बर्दाश्त नहीं करेगा। नए साल का जशन मनाइए पर ये भी संकल्प लीजिये कि ऐसी कोई भी घटिया हरकत किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं करेगे। देश को ख़तरा ख़ाली आतंकियों से ही नहीं ऐसे असमाजिक लोगों से भी है जो मानवता को शर्मसार करती है, देश की शान को आंच देते है।
ऐसे लोग उस आतंकिओं से ज्यादा ख़तरनाक है जो अपने ही देश में रह कर अपनी ही मिटटी को ज़लील करते हैं। मै आप सभी भाई बंधू से अपील करता हु कि ऐसे सभी ज़ाहिलों को पहचानिये और शख्त से शख्त सज़ा दिलवाइए, ताकि इस पाक़ मौकों पर खुलकर, निफिक्र होकर जशन मनाया जा सके.

04 दिसंबर 2008

चाहे गीता वाचिए या पढिये कुरान, तेरा मेरा प्यार ही इस पुस्तक का ज्ञान....

आतंकवाद, नस्लवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद और सम्प्रदायेवाद सभी अपराध की श्रेणी में आते हैं। इन सभी से कही न कही देश की अखण्डता को ठेस पहुचता है। कुछ आतंकियों ने मुंबई पर हमला कर भारत को घायल कर दिया. ये हमलावर बाहर के थे. बवाल मच गया. कुछ दिनों पहले ऐसा ही हमला बिहार, झारखण्ड और यूपी के लोगों पर हुआ. इस बार हमलावर देश के ही थे. दोनों ही हमलों में समानता नहीं थी, पर मकसद एक था देश को नुकसान। दोनों ही अपराध थे, एक आतंकवाद तो दूसरा क्षेत्रवाद. दोनों से देश तोड़ने की बू आती है. जब बिहार के लोगो को पीटा जा रहा था तब यही मराठी चुप थे। दबी जबान से समर्थन भी की जा रही थी, उन्हें अपने नेताओं पर गर्व था. पर इस बार महाराष्ट्र की बात थी तो सारे लोग गुस्सा जताने सड़क पर उतर आये, जिस नेता पर गर्व था उसी पर उंगली उठाई जाने लगी. कहा गया ये सियासी लोमडी हैं सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते है। मोमबत्तियां जलाई गई, नुक्कड़-नाटक किये गए, फ़िल्मी कलाकारों ने ब्लॉग लिख कर तो कभी टीवी पर आदर्शवादी टिपण्णी कर अपने बाज़ार भाव बढाते रहे, मानव श्रंखला बनायीं गयी, भारत माता की जयजयकार हुई. तब कहाँ थे ये मुंबई के भाई-बहन जब ऐसा ही हमला गैर मराठिओं पर हुआ. जाने भी गई, कई लोग तो अपंग बना दिए गए. क्या तब देश घायल नहीं हुआ, क्या तब भारत के आँचल को नहीं खिंचा गया. जब अपनी जान पर बात आई तो रोड पर निकल आये, सुरक्षा की गुहार लगाई. तब क्यों नहीं बाहर आकर अपने ही भाई-बंधुओं को मरने से बचाया. ये मुंबई के लोगों की दोहरी मानसिकता को दर्शाता है। इस हमले से अमिताभ भी डर गए. तकिये के नीचे बन्दूक रख कर सोये और ब्लॉग में अपनी संवेदना जाहिर की. पर क्या बच्चन जी आपने कभी उस माँ के बारे में सोचा है जिसका एकलौता बेटा मुंबई अफसर बनने गया था पर लौटा लाश बन कर। उस राहुल राज के बारे में ब्लॉग में क्यों नहीं लिखा जब महाराष्ट्र की पुलिस गोलियों से उसके माथे पर अपराधी लिख दिया. ऐसी ओछी संवेदना, संवेदना नहीं स्वार्थ है. ऐसे सितारों के भीतर अगर संवेदना होती तो ये सिर्फ अपने परिवार की भलाई के लिये मंदिर में सात करोड़ का मुकुट नहीं चढाते, बल्कि गरीबों को दो जुन की रोटी मिले इसके लिये उपाए तलाशते. ऐसे हजारो लोग बेरोजगार हो चुके हैं जिसे मुंबई से निकल दिया गया. चैन से सोने वालो कभी आपने सोचा है कि इन गरीबों के चूल्हों पर पकाने के लिये अनाज तो दूर जलावन के लिये लकडी तक नहीं है. बिहार के नेताओं को कोसा जाता है कि उन्होंने विकास नहीं किया इसलिए लोग दूसरे राज्यों में काम करने जाते हैं, ठीक है कुछ हद तक ये बात मान ली जाए, पर मराठी नेता ने कैसा विकास किया जो अदना सा आतंकी पुरे तीन दिनों तक बन्दूक की नोक पर इन्हें नाचता रहा. खैर.... विकसित महाराष्ट्र के लिये ये छोटी बात है, भाई ऐसे विकास से हम पिछडे ही अच्छे हैं, जो अपने लोगो का दर्द समझते हैं। और हा ऐसे ऐसे मराठी नेता से बिहारी नेता अच्छे है जो कम से कम १९० लाशों की ढेर पर बैठ कर ये तो नहीं बोलते की ये तो छोटी बात है. एक और गौर करने लायक बात है, जब आतंकी लाशों का ढेर लगा रहा था, वही क्षत्रपति शिवाजी स्टेशन पर चाय बेचने वाला एक बिहारी युवक ने करीब ३०० लोगो की जान बचाई. शायद उसके मन में ये भावना नहीं थी कि वो जिसकी जान बचा रहा है मराठी है या बिहारी. अगर ठाकरे की सेना इस बिहारी युवक को मुंबई से भगा दिया होता तो शायद मरने वालो की संख्या १९० नहीं ४९० होता. मेरे भाई सिर्फ अपने घर की तरक्की देखोगे तो घर को लूटता हुआ भी तुम्हे ही देखना होगा. मेरी समझ से मुंबई के लोगो का सड़क पर प्रदर्शन करना महज डर की निशानी है, बेमानी है. खाली आतंकवाद के नाम पर बवाल मचाने वाले क्या कभी सोचा है कि क्षेत्रवाद और सम्प्रदायेवाद से भी देश को खतरा है. आज की ये छोटी मगर खतरनाक क्षेत्रवाद की घटना कब विकराल रूप धारण कर लेगी शायद ही कोई मुंबई की आवाम समझती होगी. हम तभी आपकी बहादुरी समझेंगे जब आप देश पर लगने वाले हर दाग, देश पर उठने वाली हर ऊँगली के खिलाफ मोमबत्ती जलाओगे, भाईचारे की दुआ करोगे, छोटी मानसिकता से उबर कर सबको गले लगाओगे और किसी भी ''वाद'' को पनपने नहीं दोगे. तभी बनेगा ''अपना मुंबई, आमची मुंबई''

18 नवंबर 2008

खेत की खातिर

कभी सोने की चिडियां कहा जाने वाला हमारा देश सोने का एरोप्लेन बन चुका है। विश्व की महाशक्ति, एशिया का स्वर्ग और चाँद पर पहुँच। हमने सबकुछ तो हासिल कर लिया पर एक चीज़ भूल गए.....वो है हमारा खेत, हवा, जंगल और पानी। आज हम जो कुछ भी हैं सब धरती की देन है। खाने के लिए अनाज, पिने के लिए पानी, साँस लेने के लिए स्वच्छ हवा और विकास के लिए खनिज। हमने चाँद पर तिरंगा तो फहरा लिया पर बाढ़ से बेहाल गरीबों की समस्या को नही समझ पाये। हम क्रिकेट में सबसे आगे तो हैं पर मुनाफ जैसे खिलाडी क्रिकेट में क्यों नही आते, नही समझ पाये। हम अमीर तो बन गए पर विदर्भ के मरते किसानो की मजबूरी नही समझ पाये। आज एड्स से बचने के तरीके रोचक अंदाज़ में बताये जाते है, पर ये नही बताया जाता कि गन्दा पानी पिने से हर साल लाखों लोगों कि मौत होती है। जितने लोग प्रदूषित हवा, प्रदूषित जल से होने वाली बीमारिओं से मरते हैं शायद ही एड्स से मरते होंगे। मलेरिया, फलेरिया, कालाजार, डेंगू, हार्ट प्रोब्लम, लंग्स की तमाम बीमारी, इन्तेस्ताइन की बीमारी, किडनी इन्फेक्शन, आँख की बीमारी, बहरेपन, गंजापन, स्किन प्रोब्लम आदि ऐसी तमाम बीमारियाँ पर्यावरण प्रदूषण की देन है। पर इस बाजारवाद में पैसा ही सब कुछ करवाता है। एड्स में पैसे की कमाई है इसलिए एड्स आज सबसे बड़ी बीमारी है। देश की अमूमन सारी नदियाँ कचरे से पट चुकी है। सारे पहाड़ नंगे हो चुके हैं। जंगल मैदान में तब्दील हो चुका है और खेत की जगह अपार्टमेन्ट ने ले ली है...पर परवाह किसे है ? जब कोई आपदा आती है तभी हम जागते हैं। तरक्की के मायाजाल ने हमें इस कदर अँधा-बहरा कर दिया है कि सिर्फ़ सुनामी और जलजला ही हमें परेशान कर पाती है। फैक्ट्री के कचरे से जहाँ नदी ज़हर बन चुकी है वहीं प्लास्टिक और रसायनिक कचरे ने खेत की मिट्टी को बंजर बना दिया है। और तो और, जंगल की लकडी अवैध व्यापार का शिकार है। जिसने हमें इतनी ऊंचाई दी है उसी को खोखला कर हम अपनी ही नींव कमजोर कर रहे हैं। जागो मेरे भाई जागो। अपनी मिट्टी की रक्षा करो। हम सब को मिल कर हमारे पर्यावरण को स्वच्छ बनाना होगा, इसे प्रदूषण से बचाना होगा। बेजुबान जानवरों को शिकार होने से बचाना होगा। यही हमसब के हित में है।

15 नवंबर 2008

क्रिकेटिया बुखार

सहवाग अन्दर युवराज बाहर, पोंटिंग बेइज्जत धोनी की शोहरत.....आदि - आदि। जहाँ देखो क्रिकेट की बुखार से लोग तप रहे हैं। ऐसी बीमारी जिसे हर कोई अपनाना चाहता है। टीम जीती तो दारू और हारी तो टीवी की कबारू। खैर हम भी कभी- कभी इस बीमारी के शिकार हो जाया करते हैं। आख़िर हम सब एक सामाजिक प्राणी जो हैं। मुझे लगता है ये एक तरह का वाइरल इन्फेक्शन है जो तुंरत फैलता है। अगर आपको ट्रेन में बैठने की जगह नही मिल रही हो तो शुरू कर दें क्रिकेटिया वाइरल फैलाना, देखिये फ़ौरन आपको सीट मिल जायेगी। कहीं बैठे बोर हो रहे हो तो शुरू हो जाइये... बस सारे लोग आपकी बीमारी में शरीक हो जायेंगे। सिद्धू भी नेतागिरी का उदाहरण क्रिकेटिया किताब पढ़ कर देते हैं। अखबार और टेलीविजन की दूकान इसी बीमारी को फैला कर चल रही है। मिला - जुला कर देखे तो कई लोगों की रोजी-रोटी इसी बीमारी पर टिकी है। क्राइम रिपोर्टर और पोलिटिकल रिपोर्टर तो सुना था पर अब क्रिकेटिया रिपोर्टर भी पैदा ले चुका है। युवाओं का करियर बन चुका है ये बीमारी। अब आप ही सोचिये बीमारी भी किसी का करियर हो सकता है। डॉक्टर भी इस बीमारी से अछूते नही रहे। टीम की हार से संसद भी संकट में घिरा नज़र आता है। संसद में सोने वाले सांसद भी इस बहस में भाग लेकर अपनी उपयोगिता को साबित करते हैं। पत्रकार भाई तो इसे एक नया धर्म बना कर एक और टेंशन देना चाहते है। जितने ज्यादा धर्म उतने ज्यादा टेंशन। वैसे आइडिया बुरा नही है। लोग पूछेंगे आपका धर्म क्या है ? जवाब होगा --बीमारी और आपके भगवान् ? तो उत्तर होगा --बीमार सचिन। तो ऐसी है हमारे देश की जनता की तबियत। वैसे ये आलेख भी बीमारी ग्रस्त ही लगता है, और ध्यान रहे कहीं इसे पढ़ कर आप भी बीमार न पड़ जाए।

हम तो ऐसे हैं ''भइया''

भइया शब्द के एक ही मायने है ''बड़ा भाई'' और बड़ा भाई बाप समान होता है। यू पी बिहार और झारखण्ड के लोग दक्षिण और पश्चिम भारत में भइया शब्द से संबोधित होते हैं। होना भी चाहिए। ये तीनो राज्यों के लोग देश के अगुआ रहे हैं। हर क्षेत्र में यहाँ की आवाम ने अपनी पहचान छोडी है। पाटलिपुत्र जो वर्त्तमान में पटना है देश की प्रथम राजधानी थी। सबसे पहले सम्राट अशोक ने ही विकाश के सही मायने बताये थे। तो मेरे कहने का मतलब है कि पिता समान बड़े भाई की तौहीन करना सुधरे बच्चों का काम नही, असंस्कारी और नालायक बच्चों का काम है। एकल परिवार की हवा है, फिर भी शिक्षित और संस्कारी बच्चे अपने पिता के पाँव को भगवान् राम की खराँव समझते हैं। पर कुछ उदंड बच्चे भी हैं जो अपने बाप को घर से निकाल वृद्धा आश्रम में रहने पर मजबूर करता है। चार बच्चों में अगर एक कुपुत्र निकल जाए तो उसे बच्चा समझ कर माफ़ कर देना चाहिए। आख़िर हम बाप मेरा मतलब है भइया जो ठहरे। कुछ उदंड बच्चे अगर महाराष्ट्र छोड़ने को कहते हैं तो छोड़ दीजिये। बागबां की तरह हमें भी उसे ठुकरा कर देश के भविष्य की और देखना चाहिए। हमें ये याद रखना चाहिए कि इस तरह के मुद्दे को हवा देकर कुछ गुंडे स्वभाव के बच्चे अपनी जेब भरना चाहते हैं। इसलिए मेरे भाई बह्काबे में मत आओ। बड़े भाई की जिम्मेदारी निभाओ। गाली देने और तौहीन करने से कोई बड़ा नही बन जाता। छोटा बाबू, बाबू ही रहता है और भइया बाप ही कहलाता है।

12 नवंबर 2008

द दादा ''देश की दौलत''

विदाई की भावुक नमी में जीत का एक चम्मच शक्कर घुल जाये तो यही होता है। पनीली भावनायें मीठी हो जाती है और आसमां थोड़ा और झुककर पलकों पर बैठा लेने को बेताब। जी हाँ ये भारतीय क्रिकेट के महाराज की विदाई है कोई खेल नहीं। विदाई जीत के उस दादा की जो ऑस्ट्रेलिया को ऑस्ट्रेलिया में पीटकर आता है। अंग्रेजों के भद्र स्टेडियम में अपने जज्बात दबाता नहीं बल्कि साथियो के चौकों और छक्कों और टीम की जीत पर टी शर्ट उतारकर हवा में लहराता है। जिसकी रहनुमाई में १४ खिलाडियो का समूह 'टीम इंडिया' हो जाती है। जो जीते गए मैचों की ऐसी झडी लगाता है की बस गिनते रह जाओ। जो 'टीम ''निकाला मिलने'' पर टूटता नहीं है। लड़ता है। समय का पहिया घूमता है और प्रिन्स ऑफ कोलकाता की टीम में वापसी होती है। भारतीय क्रिकेट का ये फाइटर शतक और दोहरे शतक के साथ सलामी देता है। करीब डेढ़ दशक तक खेल प्रेमियों के दिलोदिमाग पर दादागिरी करने वाले बंगाल टाइगर ने भारतीय क्रिकेट की कमान उस वक़्त संभाली जब हर तरफ अँधेरा था। राह नहीं सूझ रही थी। ये लार्ड ऑफ द विन भारतीय क्रिकेट के सव्यसाची थे । जिन्होंने टीम ही नहीं खेलभावना को पराजय और अवसाद के अंधेरो से बहार निकाल कर बड़े बड़े मैदान में विजय पताका फहरायी। निराशा के बीच आशा की नई किरण तलाशने की सीख सौरव ने ही टीम इंडिया को दी। सौरव गांगुली का आना, उसका होना, और उसका जाना हमारे जेहन में हमेशा तरोताजा रहेगा। भारतीय क्रिकेट के परिवर्तन के सूत्रधार के रूप में सौरव सदा याद किये जाएँगे।
इस ग्रेट वारियर को हमारा अंतिम सैल्यूट..... ।
ये आलेख समीर की चिट्ठी से....

धन्यवाद....

07 नवंबर 2008

सब गोलमाल है...

चुनाव जीतने के लिए राजनैतिक दल किसी भी हद तक जा सकते हैं। ये मैं नही भारतीय लोकतंत्र का इतिहास बयां करता है। शायद राजनीति भी इसी को कहते हैं। ये भी मैं नही हमारे यंहा के नेताओ के पिछले कारनामे बताते हैं। लोकसभा चुनाव सर पे है, जाहिर है सभी दल जीत के लिए एडी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। एडी-चोटी का जोर मतलब साजिश। बयानबाज़ी तो नेताओ के रास्ते हैं, इसी पर चल के आज के गरीबों के मसीहा अमीरी का स्विस अकाउंट बनते हैं। ओह मैं भटक गया था...तो बात हो रही थी साजिश की। उस साजिश की जो भगवा रंग को बेरंगा करने के लिए महीनो से बचा कर राखी गयी थी। मालेगांव धमाके का तार भगवा रंग से जोड़ कर हाथ अपनी पांचो उँगलियाँ घी में डालने की जुगत में है। कभी इसके लिए सनातन धर्म के संगठनों को जिम्मेवार बताया जाता है, तो कभी आधी पतलून वाले सेवकों को। यंहा तक की कुछ संगठनों को बैन करने की भी कोशिश की जा रही है। साधू-संत भी इसके शिकार हो रहे हैं। खैर इसकी पड़ताल चल रही है। अब दूसरी साजिश....ये है भगवा रंग द्वारा सफ़ेद टोपी उतारने की साजिश। पश्चिम की रीजनल पार्टी द्वारा कुछ राज्यों के लोगों को पिटवा कर दिल्ली में कीचड़ भरे तालाब बनवाने की साजिश। अब कीचड़मय माहौल क्यों बनेगा भाई? आप तो समझ ही गए होंगे .... नही समझे । अरे भाई कीचड़ में ही एक ख़ास तरह के फूल खिलते हैं। सवाल ये उठता है की पिटवाने से फूल कैसे खिलेंगे ...जब लोग पीटेंगे तो और वहा के लोग पीटेंगे जहा की राजनीति सबसे पावरफुल होती है, तो जरूर आग लगेगी, और जब आग लगेगी तो जनपथ तक धुंआ जरूर जाएगा। धुंआ से लोग छातपतायेंगे, तो सफ़ेद टोपी ज़मीन पे गिरेगी ही।
तो भाई मेरे आवाम के तवे पर राजनीति की रोटी मत सेको ...कंही आवाम बिगर गयी तो सत्ता के सपने का सफर सुबह होने से पहले ही टूट जाएगा...

04 नवंबर 2008

व्हाइट हाउस में ब्लैक ओबामा

सुबह से मै टीवी पर टकटकी लगाये बैठा था बीस महीने से चल रहे अमेरिकी चुनावी घमासान का नतीजा देखने के लिए। आज से पहले मै किसी भी दूसरे देशों की राजनीति में ज़्यादा रूचि नही रखता था। २१९ सालो के अमेरिकी लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा पहला चुनावी घमासान जो दिल की बेचैनी को बढ़ा दे। एक-एक कर वोटो की गिनती हो रही थी, इधर मेरी धड़कने भी तेज़ होती जा रही थी। आख़िरकार वो लम्हा आ ही गया और ओबामा जीत गया। बराक ओबामा......अश्वेत ओबामा.....डेमोक्रेटिक ओबामा..... सबका ओबामा अमेरिका का ४४वा राष्ट्रपति चुन लिया गया। ऐसा राष्ट्रपति जो काला है। १७८९ में जॉर्ज वाशिंगटन के बाद अमेरिकी इतिहास में पहली बार कोई अश्वेत इस पद पर बैठा है। अफ्रीकी मूल के ओबामा ने रिपब्लिकन उम्मीदवार जॉन मैक्केन को १५५ के मुकाबले ३३८ वोटो से हराया। इसे एकतरफा जीत कहना ग़लत नही होगा क्योंकि बराक को ५०% से भी ज़्यादा मत मिले। वैसे व्हाइट हाउस पर कब्जा करने के लिए बराक को सिर्फ़ २७० मतों की दरकार थी। जहा तक मेरा मानना है, इस चुनाव को दिलचस्प नही कहा जा सकता। २००४ में जो मुकाबला जॉर्ज बुश और जॉन कैरी के बीच हुआ था वो मजा इस बार नही देखा गया। मै बता दू की बिडेन अमेरिका के उपराष्ट्रपति होंगे। ये लोकतंत्र की ही देन है जो एक दबे-कुचले ओबामा को विश्व के सर्वोच्च पद पर आसीन कर दिया। कुछ साल पहले तक लोग ओबामा के साथ खाना भी पसंद नही करते थे। पर आज वो दुनिया के लिए आदर्श है। २० जनवरी २००९ को बराक अपना पहला कदम सफ़ेद घर में रखेंगे। शिकागो के ग्रांट पार्क में अमेरिकी समय के मुताबिक रात के तकरीबन ग्यारह बजे ओबामा ने अपने देश की आवाम जो लगभग १० लाख की संख्या में मौजूद थे को संबोधित किया। उनके साथ स्टेज पर उनकी बीवी और बच्चे मौजूद थे। सबसे पहले जो बराक ने कही वो थी.... ''एस, वी कैन''... हाँ हमने कर दिया। जनता के साथ-साथ बराक ने अपने परिवार और नानी का भी शुक्रिया अदा किया। सबसे बड़ी बात जो ओबामा ने कही '' हम नया अमेरिका बनायेंगे, आम आदमी की सरकार जिसमे डेमोक्रेसी, लिबर्टी और ओपर्चुनिती होगी''। ग्रांट पार्क में मौजूद लाखों लोगों की आँखे नम थी... ऐसा लग रहा था मानो सभा में मौजूद सभी आदमी सबसे ताक़तवर राष्ट्र का राष्ट्रपति बन गया हो।

रांची के राही

जिस दौर में रहते हैं...
सबसे आगे निकलते हैं।

ऊपर लिखी दो लाइने किसी और ने नही अभी अभी मैंने ही कही है। अपने लिए नही अपने तमाम शहर वासियों के लिए कही है। क्यों कही ये भी आपको बता दू। खनिज में हम सबसे आगे, खेल में भी सबको पछाडे, अख़बार भी कही और का नही अपने शहर का, सबसे पहले सबके दरवाजे पहुचता है। रही बात टेलीविजन की तो उसमे भी हमारा शहर अब सबको चुनौती देगा। बस चंद दिनों का इंतज़ार है। ये 'सफ़र' भी 'रफ़्तार' पकडेगा, और यकीनन सबसे आगे ही चलेगा। चमचमाते चैनलों की रेस में अब रांची भी अपना नाम दर्ज कराने वाला है। जल्द ही हमारे शहर में कुछ चैनल खुल रहे है जिसमे न्यूज़ के साथ-साथ प्रोग्राम भी दिखाए जायेंगे। ये वाकई हमारे लिए गर्व की बात है। ऐसे लोग बधाई के हक़दार हैं, जिन्होंने हम शहर के लोगों को फ़क्र करने का मौका दिया। धन्यवाद ......

03 नवंबर 2008

इंडिया बनाम हिंदुस्तान

बड़ा ही अजीब देश है हमारा। शरीर एक है और आत्मा दो । एक आत्मा इंडिया की है ,जो बड़े शहरो के मॉल , इमारतों में बसती है , दूसरी आत्मा हिंदुस्तानवां की है जो गाँव की पगडंडियो में, शहरो की तंग गलियों में रहती है। इंडिया में सभी साथ मिलके रहते हैं, वहां ना तो क्षेत्र और धर्म के नाम पर झगडा है, और ना ही भाषा की लडाई ही है। इंडिया की टीम जिसमे सिर्फ़ इंडियन हैं ना कोई बिहारी है , ना कोई यूपी वाला और ना ही कोई मराठा। चाहे वे कहीं के भी हों , किसी भाषा में बात करते हों वे हमेशा जीतते हैं। इंडियन अब चाँद पर तिरंगा फहराने की तैयारी में हैं, उनका चंद्रयान मिशन सफलता की ओर कदम बढ़ा चुका है। इंडियन बिजनेसमेन पुरे विश्व को एक मुट्ठी में कर 'वन इंडिया ' का नारा दे रहे हैं।
दूसरी ओर खड़ा है हिंदुस्तानवां जो २८ टुकडो में बँटा है।इससे भी ज्यादा अलग जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र की दीवारे हिन्दुस्तानियों ने आपस में खिंच ली है। यहाँ हिंदू , मुस्लिम , इसाई हैं । बिहारी , मराठी, असामी हैं कोई शायद ही हिन्दुस्तानी हो.....
यही वज़ह है इंडिया डेवेलप है, और हिंदुस्तान मानव विषयक सूचकांक में १२८ पायदान पर खड़ा है.....
आइये हम भी इंडिया की तरह हिंदुस्तान को एक बनाये.....

अपने संस्कार

आज सुबह जब मै घर से ऑफिस के लिए निकल रहा था तो मेरी बेगम ने मुझे शाम को जल्दी घर वापस आने का हुक्म किया। मैंने कहा क्यों भाई आज कुछ खास है क्या? तो उन्होने कहा, छठपर्व है न इसलिए पूजा के लिए कुछ फल और मिठाई मंगवानी है। मै दंग रह गया , वैसे मेरी पत्नी छठ नही करतीं हैं बस पड़ोस की महिला द्वारा अर्ध्य देना चाहतीं हैं। मैं सोच में पड़ गया... वजह भी था क्योंकि मेरी वाइफ कभी पूजा - पाठ नही करतीं और ना ही उन्हें इसके लिए कभी वक्त मिलता है। वो भी मेरी तरह पत्रकार जो ठहरीं
एमबीए और सॉफ्ट वेअर इंजिनीयर बीवी से मै ऐसी उम्मीद भी नही करता था... पर ये छठ जैसे महान पर्व की हीं देन है जो हमें अपनी मिट्टी अपने संस्कार की याद दिलाता है। ........ मैं बगैर कुछ जाहिर किए घर से निकल पड़ा.... और मेरा जवाब था, ठीक है जल्दी आजाऊंगा।

01 नवंबर 2008

एक और रंग दे बसंती

राहुल राज के साथ मुंबई में जो कुछ हुआ वह मुझे एक फ़िल्म रंग दे बसंती की याद दिला गया। राहुल का मकसद किसी को मरना नही था । वो अपनी बात मुंबई पुलिस के सामने रखना चाहता था। माना राहुल ने तरीका ग़लत अपनाया लेकिन किसी मजबूर और अकेले इंसान की बात आज सुनता कौन है, ऐसे में यदि कोई राहुल या रंग दे बसंती के डीजे की तरह उग्र हो जाए तो ये गलत नही । आख़िर ऐसा ही तरीका तो भगत सिंह ने भी अपनाया था , खैर जैसा फ़िल्म में डीजे और उसके साथियों के साथ हुआ वही राहुल के साथ मुंबई पुलिस ने किया। लेकिन ना तो फ़िल्म का डीजे अपनी बात रख पाया था और ना ही असल जिन्दगी का राहुल अपनी बात रख पाया । दोनों की मिली मौत ......संभव है फिल्मी डीजे की तरह राहुल की भी मौत राजनेताओ के इशारे पर ही की गई हो....पर ज़रा सोचिए जिस तरह महारास्ट्र के गृहमंत्री और सामना ने राहुल को बिहारी गुंडा कहा , वो सही था ?गुंडा तो वे लोग हैं जो महारास्ट्र में हिंसा को हवा दे रहे हैं।

सफ़र की शुरुआत

मैंने अपने ब्लॉग का नाम 'सफ़र' इसलिए दिया है ताकि मैं अपनी रोजमर्रा के सफर का एहसास आपसे बाँट सकूँ। पत्रकारिता में सबसे पहले अखबार के सफ़र की शुरुआत हुई, फिर आया रेडियो और टेलीविजन का दौर, पर अब जन-जन में लोकप्रिय हो रही है वेब पत्रकारिता, उसमे भी ब्लॉग का चस्का सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है। ब्लॉग की बढती लोकप्रियता देख मैंने भी अपना ब्लॉग बनाने की ठानी, जिसका नतीजा है 'सफ़र'। बस इस सफ़र में आपसे यही गुजारिश है कि .....

'कभी अलविदा ना कहना' ....... आज के लिए बस इतना ही।

28 अगस्त 2008

किसी काम को करने के लिए मेहनत की जरुरत होती है , लेकिन असाधारण काम के लिए पागलपन की .... किसी ने कहा है

इन्ही उलझे दिमागों में मोहब्बत के घने लच्छे हैं ....

हमें पागल ही रहने दो , की हम पागल ही अच्छे हैं.....

krazzy knight films

Think krazzy ... do krazzy.....