मै अपने घर की टेरिस पर बैठा अखबार पढ़ रहा था, तभी मेरी नज़र एक दस साल की लड़की पर पड़ी, जो बड़े ही तन्मयता और साफ़ मन से भैस का तबेला साफ़ कर रही थी। तभी मेरे मन में ये ख़्याल आया कि कुछ सालों बाद इसे भी अपना घर छोड़ना होगा। जिस घर में वो अपनी उम्र का एक चौथाई साल गुजारेगी, कल उसी घर को मायका कहना होगा। जिसकी न मिटटी अपनी होगी, न आबो-हवा अपना।
अपनों से पराया बनने का दर्द शायद हरेक लड़कियों को सताता होगा। हाँ, वो बच जाती है, जिसे कोख में ही मार दिया जाता है या शारीरिक कमी की वजह से जिसकी शादी नहीं हो पाती। सदियों से लड़कियों को दबाने, प्रतारित करने और जंजीर में जकड़ने के लिये हमारे समाज ने कई अमानवीय नियम बनाये हैं, जिसे अपने ही माँ-बाप सामाजिक रीतिरिवाज़ के नाम पर अपनाते हैं और परायों जैसा सुलूक करते हैं। शायद माँ ऐसा नहीं चाहती होगी, पर माँ तो माँ है। वैसे माँ कर भी क्या सकती है, उसका वस भी तो नहीं चलता।
हमारे देश की परम्परा रही है कि जन्म के साथ ही बेटियों को पराया धन कहा जाने लगता है। खान-पान, पढाई-लिखाई, काम-काज, खेल-कूद और यहाँ तक कि प्यार में भी भेद-भाव किया जाता है। बेटे को कान्वेंट तो बेटी को सरकारी स्कूल में दाखिला करवाया जाता है क्योंकि पढ़-लिख कर इंदिरा गाँधी थोड़े ही बनना है। बेटा कार्टून शो देखता है तो बेटी घर की रसोई संभालती है, क्योंकि ससुराल जाकर सास की सेवा जो करनी है। बेटा क्रिकेट खेलेगा तो बेटी लुका-छिपी खेल कर ही खुश रहना सीख लेती है। इतना सब इसलिए होता है कि बेटी को एक दिन दूसरे घर जाना होता है.
खानदान का नाम तो रौशन बेटा करेगा। भले ही बेटा कितना भी नकारा हो, है तो वंश बढ़ाने वाला। बाप को पुत्र मोह इतना होता है कि बेटी की शादी के पैसे भी बेटा की ऐयाशी पर लुटा देते हैं, और जैसे-तैसे बेटी की शादी की डिउटी निभा गंगा नहा लेते हैं।
गृहस्ती में अगर बेटी को किसी तरह की आर्थिक परेशानी होती है, तो ऐसे में माता-पिता से उम्मीद करना रेगिस्तान में जल ढूंढने के समान है। जहाँ पानी तो नहीं मिलता उल्टे शारीर का बचा खुचा पानी भी सूख जाता है। हाँ अगर दयालू पिता तरस खा कर पैसे देते भी हैं तो वापस लेने की तारीख पहले ही पूछ लेते हैं। ऐसे दुकानदारी बेटों के साथ क्यों नहीं होती है? एक ही कोख से पैदा हुई, पर क्या ग़लती हुई, लड़कियां सारी उम्र नहीं समझ पाती। शायद बेटी होना ही सबसे बड़ा गुनाह था। एक ऐसा गुनाह जिसकी सजा हर वक़्त भावनाओं की चावुक से पीट पीट कर दी जाती है।
बचपन से लेकर व्याहने तक लड़की को इस बात का खौफ़ हमेशे सताते रहता है कि एक दिन उसे अपना घर छोड़ कर जाना है। उसी तरह जो भैस के नर बच्चे के साथ होता है। भैस अगर मादा बच्चे को जन्म देती है तो उसे ख़ुशी से पाल लिया जाता है क्योंकि वो बड़ी होकर दूध देगी, बच्चे देगी, पर नर बच्चा बेकार, किसी काम का नहीं होता है। इसलिए उसे चारा तो दूर ठीक से माँ का दूध भी नहीं पिने दिया जाता है और बचपन में ही कसाई के हाथों बेच दिया जाता है। कमोबेस, यही हालात लड़कियों की भी है। बस फर्क सिर्फ इतना है कि बेटियों को कसाई के हाथो नहीं बेचा जाता है।
बचपन में ही काम का बोझ पीठ पर लाद दिया जाता है। माँ का आदेश होता है, आज स्कूल छोड़ दो घर में काम कुछ ज्यादा है। दूध्मुहा भाई हो तो उसे भी गोद में बहलाना होता है, चाहे लड़की खुद भी गोदी के लायक ही क्यों न हो? शादी का लाइसेंस मिलने के बाद घर संभालने की 24/7 डिउटी, चाहे लड़की पेशेवर हो या घरेलु। हस्ते-गाते, बगैर छुट्टी के, बगैर तनख्वा के। न चेहरे पर शिकन, न शिकवा न शिकायत। बस कपडा, खाना, बरतन और बच्चे। ज़िन्दगी इसी में कट जाती है.
खुदा न खास्ते अगर पति को कुछ हो गया तो लड़की की हालत धोबी के कुत्ते जैसी हो जाती है। अपने, जो पहले ही बेगाने हो चुके होते है, तो चंद दिनों के रिश्तों का क्या भरोसा। न घर बटवारे की लालच, न पैसा, न ज़मीं-ज़येदाद की चाहत, सिर्फ एक प्यार का हक़ चाहती है सो वो भी उसे नहीं मिलता है।
माँ-बाप से पूछ कर घर आना, गेस्ट की तरह रहना, कितना अजीब लगता होगा? सब कुछ एक ही शब्द के इर्द-गिर्द घूमता है ''वो पराई है''। अपने ही घर में पराया होना कैसा लगता है, मन में शायद कुछ इस तरह के ख्याल आते होंगे।
''पहले हर चीज थी अपनी मगर अब लगता है,
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं''.
जिस घर का कमरा अपना था, बिस्तर और उसकी सिलवटें अपनी थी, आलमीरा अपना था, आँगन अपने थे, छत अपनी थी, खिड़की-दरवाजे अपने थे। पर अब बिना अनुमति के गहरी साँस लेकर बाहें फैलाने का भी हक़ नहीं है। सब अजनबी से लगते हैं, जहाँ आइना देख कर तसल्ली मिलती है कि इस घर में कोई तो मुझे जनता है।
बेटी के लिये मरते दम तक वही माँ-बाप होते हैं, पर माँ-बाप के लिये वही बेटी शादी के बाद पराई क्यों हो जाती है? आखिर लड़की को ही क्यों घर छोड़ कर जाना होता है? क्या लड़की वंस नहीं चला सकती है? क्या बेटी अपने माता-पिता की देखभाल नहीं कर सकती है? क्या बेटी को पिता के कंधे और माँ की आँचल में सोने का हक़ नहीं है? उपेक्षा और परायपन की टीस दिल के अरमानों को कितना कचोटती है शायद एक बेटी से बेहतर और कोई नहीं जनता होगा.