31 जनवरी 2009

काश ! ''वो मेरा भी घर होता''

मै अपने घर की टेरिस पर बैठा अखबार पढ़ रहा था, तभी मेरी नज़र एक दस साल की लड़की पर पड़ी, जो बड़े ही तन्मयता और साफ़ मन से भैस का तबेला साफ़ कर रही थी। तभी मेरे मन में ये ख़्याल आया कि कुछ सालों बाद इसे भी अपना घर छोड़ना होगा। जिस घर में वो अपनी उम्र का एक चौथाई साल गुजारेगी, कल उसी घर को मायका कहना होगा। जिसकी न मिटटी अपनी होगी, न आबो-हवा अपना।
अपनों से पराया बनने का दर्द शायद हरेक लड़कियों को सताता होगा। हाँ, वो बच जाती है, जिसे कोख में ही मार दिया जाता है या शारीरिक कमी की वजह से जिसकी शादी नहीं हो पाती। सदियों से लड़कियों को दबाने, प्रतारित करने और जंजीर में जकड़ने के लिये हमारे समाज ने कई अमानवीय नियम बनाये हैं, जिसे अपने ही माँ-बाप सामाजिक रीतिरिवाज़ के नाम पर अपनाते हैं और परायों जैसा सुलूक करते हैं। शायद माँ ऐसा नहीं चाहती होगी, पर माँ तो माँ है। वैसे माँ कर भी क्या सकती है, उसका वस भी तो नहीं चलता।

हमारे देश की परम्परा रही है कि जन्म के साथ ही बेटियों को पराया धन कहा जाने लगता है। खान-पान, पढाई-लिखाई, काम-काज, खेल-कूद और यहाँ तक कि प्यार में भी भेद-भाव किया जाता है। बेटे को कान्वेंट तो बेटी को सरकारी स्कूल में दाखिला करवाया जाता है क्योंकि पढ़-लिख कर इंदिरा गाँधी थोड़े ही बनना है। बेटा कार्टून शो देखता है तो बेटी घर की रसोई संभालती है, क्योंकि ससुराल जाकर सास की सेवा जो करनी है। बेटा क्रिकेट खेलेगा तो बेटी लुका-छिपी खेल कर ही खुश रहना सीख लेती है। इतना सब इसलिए होता है कि बेटी को एक दिन दूसरे घर जाना होता है.

खानदान का नाम तो रौशन बेटा करेगा। भले ही बेटा कितना भी नकारा हो, है तो वंश बढ़ाने वाला। बाप को पुत्र मोह इतना होता है कि बेटी की शादी के पैसे भी बेटा की ऐयाशी पर लुटा देते हैं, और जैसे-तैसे बेटी की शादी की डिउटी निभा गंगा नहा लेते हैं।

गृहस्ती में अगर बेटी को किसी तरह की आर्थिक परेशानी होती है, तो ऐसे में माता-पिता से उम्मीद करना रेगिस्तान में जल ढूंढने के समान है। जहाँ पानी तो नहीं मिलता उल्टे शारीर का बचा खुचा पानी भी सूख जाता है। हाँ अगर दयालू पिता तरस खा कर पैसे देते भी हैं तो वापस लेने की तारीख पहले ही पूछ लेते हैं। ऐसे दुकानदारी बेटों के साथ क्यों नहीं होती है? एक ही कोख से पैदा हुई, पर क्या ग़लती हुई, लड़कियां सारी उम्र नहीं समझ पाती। शायद बेटी होना ही सबसे बड़ा गुनाह था। एक ऐसा गुनाह जिसकी सजा हर वक़्त भावनाओं की चावुक से पीट पीट कर दी जाती है।

बचपन से लेकर व्याहने तक लड़की को इस बात का खौफ़ हमेशे सताते रहता है कि एक दिन उसे अपना घर छोड़ कर जाना है। उसी तरह जो भैस के नर बच्चे के साथ होता है। भैस अगर मादा बच्चे को जन्म देती है तो उसे ख़ुशी से पाल लिया जाता है क्योंकि वो बड़ी होकर दूध देगी, बच्चे देगी, पर नर बच्चा बेकार, किसी काम का नहीं होता है। इसलिए उसे चारा तो दूर ठीक से माँ का दूध भी नहीं पिने दिया जाता है और बचपन में ही कसाई के हाथों बेच दिया जाता है। कमोबेस, यही हालात लड़कियों की भी है। बस फर्क सिर्फ इतना है कि बेटियों को कसाई के हाथो नहीं बेचा जाता है।

बचपन में ही काम का बोझ पीठ पर लाद दिया जाता है। माँ का आदेश होता है, आज स्कूल छोड़ दो घर में काम कुछ ज्यादा है। दूध्मुहा भाई हो तो उसे भी गोद में बहलाना होता है, चाहे लड़की खुद भी गोदी के लायक ही क्यों न हो? शादी का लाइसेंस मिलने के बाद घर संभालने की 24/7 डिउटी, चाहे लड़की पेशेवर हो या घरेलु। हस्ते-गाते, बगैर छुट्टी के, बगैर तनख्वा के। न चेहरे पर शिकन, न शिकवा न शिकायत। बस कपडा, खाना, बरतन और बच्चे। ज़िन्दगी इसी में कट जाती है.

खुदा न खास्ते अगर पति को कुछ हो गया तो लड़की की हालत धोबी के कुत्ते जैसी हो जाती है। अपने, जो पहले ही बेगाने हो चुके होते है, तो चंद दिनों के रिश्तों का क्या भरोसा। न घर बटवारे की लालच, न पैसा, न ज़मीं-ज़येदाद की चाहत, सिर्फ एक प्यार का हक़ चाहती है सो वो भी उसे नहीं मिलता है।

माँ-बाप से पूछ कर घर आना, गेस्ट की तरह रहना, कितना अजीब लगता होगा? सब कुछ एक ही शब्द के इर्द-गिर्द घूमता है ''वो पराई है''। अपने ही घर में पराया होना कैसा लगता है, मन में शायद कुछ इस तरह के ख्याल आते होंगे।
''पहले हर चीज थी अपनी मगर अब लगता है,
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं''.
जिस घर का कमरा अपना था, बिस्तर और उसकी सिलवटें अपनी थी, आलमीरा अपना था, आँगन अपने थे, छत अपनी थी, खिड़की-दरवाजे अपने थे। पर अब बिना अनुमति के गहरी साँस लेकर बाहें फैलाने का भी हक़ नहीं है। सब अजनबी से लगते हैं, जहाँ आइना देख कर तसल्ली मिलती है कि इस घर में कोई तो मुझे जनता है।

बेटी के लिये मरते दम तक वही माँ-बाप होते हैं, पर माँ-बाप के लिये वही बेटी शादी के बाद पराई क्यों हो जाती है? आखिर लड़की को ही क्यों घर छोड़ कर जाना होता है? क्या लड़की वंस नहीं चला सकती है? क्या बेटी अपने माता-पिता की देखभाल नहीं कर सकती है? क्या बेटी को पिता के कंधे और माँ की आँचल में सोने का हक़ नहीं है? उपेक्षा और परायपन की टीस दिल के अरमानों को कितना कचोटती है शायद एक बेटी से बेहतर और कोई नहीं जनता होगा.

23 टिप्‍पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

समझदार लड़कियाँ वहाँ का मोह नहीं करतीं जो कभी उनका था ही नहीं। वहाँ का भी नहीं जो उनका तभी तक है जबतक सबकुछ ठीक चल रहा हो। जो उसे अपना ना मानें उनको प्यार कर सकती हैं, यदि कर्त्तव्य लगे तो वह भी निभा सकती हैं, परन्तु अधिकार कैसा ? जब दान दे दी गईं हैं तो फिर कोई अधिकार नहीं बचता। समय आ गया है कि इस संसार में जहाँ 'जिसकी लाठी उसीकी भैंस' का नियम चलता है वे लाठी भी खरीद सकें और अपनी स्वयं की भैंस भी। जब वे आर्थिक व मानसिक रूप से समर्थ हो जाएँगी तब प्रेम भी अपने आप उमड़ने लगेगा। जब वे माता पिता के बुढ़ापे की लाठी बनेंगी तो सबकुछ अपने आप बदलने लगेगा। जैसे भैंस के नर बच्चे को नापसन्द करने का कारण दूध न दे पाना ही है वैसे ही पुत्रियों से परहेज का कारण उनका धन न कमा सकना ही था। जब वे कमा भी सकेंगी और अपने माता पिता पर खर्च भी कर सकेंगी तो बदलाव आ जाएगा।
शायद वह समय आने ही वाला है।
घुघूती बासूती

निर्मला कपिला ने कहा…

bhagvaan kare vo samay jaladi aaye magar is ke liye ladke valon ko bhi apni soch badalni hogi putarion se parhej unka dhan naa kamana nahi balki uski maa ne jo dekha suna saha hota hai usi se ye vichar us ke man me ata hai ki beti nahi beta chahiye kamati betyon ko bhi kahan sasuraal vale use apne maa baap ki dekh bhal karne dete hain shayad kabhi aisa ho paaye

बेनामी ने कहा…

आपकी बात सही है परन्तु स्थितिया बदक रही हैं. अब बेटे और बेटियों में अन्तर कर देखने वाले बहुत कम रह गए हैं. हो सकता है गांवों में ऐसों की संख्या अधिक हो. लेकिन फ़िर भी अन्तर तो है. आभार.

बेनामी ने कहा…

आज की महिलायों के लिए "तेरे माथे पे ये आँचल क्या खूब है, इस आँचल से एक परचम बना लेती तो कितना अच्छा होता...

sandhyagupta ने कहा…

Sach kaha aapne ..

दिगम्बर नासवा ने कहा…

लेख में आपने सच ही कहा है...............परंतु ये स्थिती अब बदल रही है...........धीरे धीरे ही सही समाज में बदलाव की हवा बहने शुरू हुयी है और मुझे लगता है जब ये हवा आंधी बन कर उडेगी तब क्या होगा......

Harshvardhan ने कहा…

very nice blog

daanish ने कहा…

बहुत ही मननीय लेख पढने को मिला है ....
आपकी चिंता भी व्यर्थ ही नही है....लेकिन ये भी
सच्च है कि परिस्थितियाँ वास्तव में ही बदल रही
हैं...और इसी बदलाव में हमारा समाज करवटें ले
भी रहा है....बेशक दिखावा ज़रा ज़्यादा ही है....
फिर भी निराशा कुछ कम तो हो ही रही है.......
खैर , आलेख को पढ़ कर मन सोचने को मजबूर
हो जाता है, आपका संदेश सबजन तक पहुंचे,
यही कामना है !
मैं कविता भी कहता हूँ, लेकिन उतना रुजहान नही
बना पाता हूँ, ग़ज़ल में मन ज़्यादा लगता है...
मेरे ब्लॉग पर नवम्बर/दिसम्बर में तीन कविताएँ
हैं, पढ़ कर अपनी राए से अवगत करवाइगा. . . .
---मुफलिस---

purnima ने कहा…

बहुत सुंदर भावः से इसे लिखा हे.
जो भी लिखा हे इतना सही लिखा हे की
बस एक लड़की की जिन्दगी यही से सुरु होती हे यही खतम हो जाती हे
वो अपनी मर्जी से कुछ नही आर सकती
लकिन में चाहती हु की अब एसा नही होगा
अगर आप जैसे सभी व्यक्ति हो ............
लड़कियों की जिंदगी में बहुत बहुत से खुशिया होगी............
बहुत बहुत धन्यवाद ..........
अपको राजीव जी ........
मेरी कविता नन्ही सी छांव .........भी पढ़ना .......

purnima ने कहा…

mired जी से में बिल्कुल भी सहमत नही हु क्यों की माँ और पिता सिर्फ़ लड़को के नही होते हे
लड़किया भी उतनी ही प्यारी होती हे जितने की लड़के ........
और सिर्फ़ अपने पेर्रो पर खड़े होने से इत्ती चंग हो जाए यह बिल्कुल ग़लत हे........
में इस बात से बिल्कुल सहमत नही हु..........

अखिलेश सिंह ने कहा…

बेटियों की इसी हाल पर किसी ने लिखा है अगले जनम मोहे बिटिया ना दिहो, घर घर में कहीं ना कहीं लड़को और लड़कियों के लालन पालन में भेद जरूर दिख जाता है.....
आप से पूर्णतः सहमत हूँ....

ilesh ने कहा…

रूढ़ि जो बनी हुई हे...टूटने मे समय तो लगेगा ही मगर बदलाव आ ही रहा हे ....अब बेटी भी बेटे से कम नही मानी जाती हे....हा दुख तब ज़्यादा होता हे जब पढ़े लिखे लोग भी बेटा-बेटी मे अंतर रखते हे....फिर भीइ आसार अच्छे हे और स्त्री ओ की जागृति भी बढ़ी हे....आनेवाला कल सच मे सुहाना होगा.....

बेनामी ने कहा…

आपका लेख हर बेटी और बेटी के बाप के मन को कचोटने वाला है. लेकिन शुभ संकेत यही है कि शहरों में थोडा बहुत परिवर्तन इस सोच में हो रहा है. इसका हल यह है कि लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाया जाए - न केवल आर्थिक रूप से वरन सामान्य व्यवहार में भी. वैसे आज के दौर में बहुत से लोग अजहर हाशमी की इन पंक्तियों से सहमत होंगे -

दुर्दिनों के दौर में देखा,
बेटियाँ संवेदनाएं हैं |
गर्म झोंके बन रहे बेटे
बेटियाँ ठंडी हवाएं हैं |

बेनामी ने कहा…

राजीव जी,
मैं आपकी भावनाओं का सम्मान करती हूँ. पर माफ़ी चाहूंगी,मैं आपसे पूरी तरह सहमत नही हूँ. शायद इसका कारण यह है कि मैं भी एक लड़की हूँ तथा मुझे मिली परवरिश और प्यार ने कभी यह एहसास नहीं होने दिया कि लड़का और लड़की में भेदभाव किया जाता है.मेरा कोई भाई नहीं है पर मुझे और मेरी बहिन को इन्डिपेन्डेन्ट बनाने के लिए हमारे माता-पिता ने सारी फेसिलिटीस दी हैं.मैं भी कॉन्वेंट स्कूल से पढ़ी हुई हूँ.और सिर्फ़ मैं ही नहीं मेरी जितनी सहेलियां हैं,उनमें से कुछ अपने घर की एकलौती लड़की हैं और कुछ और हैं जिनका कोई भाई नहीं,पर हम सबकी परवरिश में कभी कोई कमी नहीं की गई. इन परिस्तिथियों को देखकर लगता है कि समाज कि मानसिकता बदल रही है.....आज के समय में लड़के तथा लड़की के बीच का फर्क ख़तम हो रहा है.

These are the words said by famous british politician,Margaret Thatcher....

"In politics if you want anything said, ask a man. If you want anything done, ask a woman."
I think these words can be applied not only in politics but in each sphere of our lives!

रंजना ने कहा…

आपने बात तो सही कही है,पर हर बेटी एक दिन माँ भी तो बनती है.......और माँ बनकर भी तो सिलसिला बंद नही करती......किसे दोष दीजियेगा ??????

और सबसे बड़ी बात, यही बेटी यदि माँ बाप समय पर ब्याह न दें तो अपने अभिभावक के ही ख़िलाफ़ हो जाती है,कि उन्हें अपने बेटी के सुख से मतलब नहीं.ऐसे कई केस मैंने ख़ुद देखे हैं..

राज भाटिय़ा ने कहा…

अरे नही ऎसा नही होता, लड्किया हमेशा मां बाप को जान से प्यारी होती है, एक आध अप्वद को छोड कर.
धन्यवाद

Unknown ने कहा…

बहुत शानदार बाते कही है आपने राजीव. बधाई.

Unknown ने कहा…

सही मुद्दा उठाया है आपने, कही न कही ए हमारे समाज को खोखला ज़रूर कर रहा है. अगर हर आदमी अपनी ज़िम्मेदारी समझ ले तो सारी प्रोब्लम अपने आप ही दूर हो जायेगी. बधाई.

राजीव करूणानिधि ने कहा…

आप सभी को मेरा सदर अभिनन्दन. आप लोगों ने अपना व्यस्त समय निकाल कर मेरे विचरों को पढ़ा और महत्वपूर्ण टिप्पणी दी. मै आभरी हूँ.

बेनामी ने कहा…

पराये घर की समझे जाने वाली लड़कियों के बारे में खूबसूरत चित्रण । चाहे जितनी आजादी हो लेकिन आज भी हमारा समाज लड़कियों को अपना मानने से इंकार करती रही है । यही तो हमारे समाज की बिडंबना है । कहने को तो सभी कहते है लेकिन अपनाने के समय सभी मुकर जाते है । शुक्रिया

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

बेशक....... अपवाद दोनों तरफ हैं...

समीर सृज़न ने कहा…

"बाबुल मोरा नैहर छूटा जाये"... बाबुल का सिर्फ घर नहीं छुटता,वो २०-२५ सालो की सारी यादे पीछे छुट जाती है और शायद प्रीत की रीत भी यही है की शादी के बाद लड़कियों को ही माँ बाप का घर छोड़ना पड़ता है जो उसका भी होना चाहिए.लेकिन वक्त और हालात एक जैसे नहीं रहते.ये भी बदलेंगे सिर्फ नजरिया बदलने की जरूरत है.

vimi ने कहा…

I am happy & hopeful that a man has expressed these thoughts. Please spread these in the society & to other males.